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बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा
प्रमाण नहीं कहा जा सकता, यथा आकाश में केशपाश का ज्ञान ।
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अर्थक्रियार्थी पुरुषों के लिए जो अर्थक्रिया में समर्थ अर्थ का प्रापक होता है वह प्रमाण है। स्मृति असत् अर्थ को विषय करती है, इसलिए वह अर्थप्रापक नहीं हो सकती। अर्थप्रापक नहीं होने स्मृति को प्रमाण नहीं कहा जा सकता।
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उत्तरपक्ष - प्रभाचन्द्र प्रत्युत्तर देते हुए प्रतिपादित करते हैं कि स्मृति का वाच्य ज्ञान है, ज्ञाता नहीं । वह ज्ञानमात्र का भी द्योतक नहीं है, जिससे समस्तज्ञानों को स्मृति कहने का दोष आ सके । स्मृति ज्ञानविशेष का द्योतक है जो संस्कार विशेष से उत्पन्न होता है तथा 'तत्' (वह) इस आकार में अनुभूत अर्थ को विषय करता है । वह कारण, स्वरूप एवं विषय के भेद से प्रत्यक्षादि अन्य ज्ञानों से भिन्न है । प्रत्यक्षादि ज्ञानों का कारण जहां चक्षु आदि इन्द्रिया हैं वहां स्मृति का कारण पटुतर संस्कार है। प्रत्यक्षादि ज्ञानों का उल्लेख 'इदम्' (यह) आदि शब्दों द्वारा किया जाता है वहां स्मृति का उल्लेख 'तत्' (वह) शब्द द्वारा होता है । विषय भी दोनों का भिन्न है। प्रत्यक्ष का विषय वर्तमान पदार्थ होता है जबकि स्मृति का विषय पूर्व में अनुभूत अर्थ होता है। इस प्रकार स्मृति ज्ञान कारण, स्वरूप एवं विषय में प्रत्यक्षादि ज्ञानों से भिन्न है । ७४
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“अनुभूत पदार्थ की स्मृति होती है, ऐसा न प्रत्यक्ष से प्रतीत होता है, न स्मृति से और न इन दोनों से,” बौद्धों का यह कथन असमीचीन है, क्योंकि त्रिकालानुयायी प्रमाता के द्वारा उसकी प्रतीति की जा सकती है। त्रिकालानुयायी प्रमाता को प्रभाचन्द्र ने अन्यत्र सिद्ध किया है । वे कहते हैं तीनों कालों का प्रमाता स्मृति की सहायता से पदार्थ की अनुभूतता को जानता है तथा प्रत्यक्ष की सहायता से अनुभूयमानता को जानता है, अतः उसके द्वारा दोनों को पृथक्रूपेण जानने में कोई बाधा नहीं आती है । ७५ प्रभाचन्द्र ने अन्यत्र मतिज्ञान की अपेक्षा से स्मृति एवं प्रत्यक्ष के द्वारा अनुभूत एवं अनुभूयमान पदार्थों के ज्ञान का एक ही आत्मा में होना स्वीकार किया है तथा उसके लिए उदाहरण दिया है - जिस प्रकार बौद्धों के यहां चित्राकार एवं चित्रज्ञान दोनों का एक विज्ञान में युगपद् होना स्वीकार किया गया है, उसी प्रकार जैनमत में भी एक आत्मा में क्रम से अवग्रह, ईहा, अवाय, धारणा, स्मृति आदि का होना अभीष्ट है। ७६
प्रभाचन्द्र एवं वादिदेवसूरि ने स्मृति ज्ञान को विविध प्रकार से प्रमाण सिद्ध किया है तथा बौद्धों की ओर से उसके अप्रामाण्य की आशंकाएं खड़ी कर उनका निवारण किया है। वे बौद्धों से प्रश्न करते हैं कि आप स्मृति को किस कारण से अप्रमाण मानते हैं ? (१) गृहीतमाही होने के कारण (२) परिच्छित्ति विशेष का अभाव होने से (३) अविद्यमान (असत्) एवं अतीत अर्थ में प्रवर्तक होने से (४)
७२. तुलनीय - ततोऽर्थक्रियासमर्थवस्तुप्रदर्शकं सम्यग्ज्ञानम् । - न्यायबिन्दुटीका, १.१, पृ. १६
७३. न्यायकुमुदचन्द्र, भाग-२, पृ. ४०५-४०६ एवं प्रमेयकमलमार्त्तण्ड, भाग-२, पृ. २७७
७४. न्यायकुमुदचन्द्र भाग-२, पृ. ४०६-७
७५. न्यायकुमुदचन्द्र भाग-२, पृ. ४०७ ७६. प्रमेयकमलमार्तण्ड, भाग-२, पृ. २७८
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