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________________ बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा विपक्षासत्त्व का अभाव है १२२ । इसी प्रकार शब्द, दीप आदि वस्तुओं में पक्षधर्मत्व के अभाव में भी अन्यथानुपपत्ति से ही ज्ञापकता देखी गयी है । १२३ इसलिए प्राधान्य के कारण एक अविनाभावित्व लक्षण वाला ही हेतु मक है। पक्षधर्मत्व आदि अन्य लक्षणों की व्यर्थ परिकल्पना से कोई लाभ नहीं है । १२४ २२६ भट्ट अकलङ्कदेव ने ऐसे अनेक हेतु प्रस्तुत किये हैं जिनमें पक्षधर्मत्वादि रूपत्रय का अभाव है तथापि वे हेतु साध्याविनाभाव के कारण साध्य के गमक हैं। यथा एक मुहूर्त पश्चात् शकट नक्षत्र का उदय होगा, क्योंकि अभी कृत्तिका का उदय है। १२५ कृत्तिकोदय हेतु में पक्षधर्मत्वादि का अभाव है तथापि यह शकट साध्य का पूर्वचर रूप में अविनाभावी होने से उसका गमक है । इसी प्रकार चन्द्र आदि से जल में पड़ने वाले उसके प्रतिबिम्ब का ज्ञान, १२६ 'तुला के एक पलड़े के ऊपर उठने से उसके दूसरे पलड़े के नीचे जाने का अनुमान, . १२७. 'कल उदित होने वाले सूर्योदय का अनुमान, चन्द्रादि अर्वाक् भाग को देखकर परभाग का अनुमान' १९ आदि ऐसे अनेक अनुमिति-साधक हेतु है जिनमें पक्षधर्मत्वादि रूपय का अभाव है। 1 अकलङ्कका मन्तव्य है कि अन्यथानुपपत्ति रूप एकलक्षण के सामर्थ्य से ही विरुद्ध, अनैकान्तिक, असिद्ध, अज्ञात, अकिञ्चिकर आदि समस्त हेत्वाभासों का निराकरण हो जाता है । १३० बौद्धों ने असिद्ध, विरुद्ध, एवं अनैकान्तिक रूप तीन हेत्वाभासों का निराकरण करने के लिए तीन रूपों पक्षधर्मत्व, सपक्षसत्त्व एवं विपक्षासत्त्व को आवश्यक माना है, किन्तु अकलङ्क का मत है कि एक अन्यथानुपपत्ति लक्षण के अभाव में पक्षधर्मत्वादि त्रिलक्षण साध्य के गमक नहीं होते । १३१ विद्यानन्द ने त्रिलक्षणत्व को दो कारणोंसे अनुपपन्न सिद्ध किया है। पहला तो यह है कि वह हेत्वाभास में भी पाया जाता है और दूसरा यह है कि वह हेतु का असाधारण लक्षण नहीं है १३२ १२२. तत्त्वसंग्रह, १३७४- १३७५ १२३. अन्यथानुपपत्त्यैव शब्ददीपादिवस्तुषु । अपक्षधर्मभावेऽपि दृष्टा ज्ञापकतापि च ॥ - तत्त्वसङ्ग्रह, १३७७ १२४. (१) तेनैकलक्षणो हेतुः प्राधान्याद् गमकोऽस्तु नः । पक्षधर्मादिभिस्त्वन्यैः किं व्यर्थैः परिकल्पितैः ॥ - तत्त्वसङ्ग्रह, १३७८ (२) शान्तरक्षित ने पात्रस्वामी के मत का खण्डन किया है । तदर्थ द्रष्टव्य, तत्त्वसंग्रह, १३७९-१४२८ १२५. भविष्यत्प्रतिपद्येत शकटं कृत्तिकोदयात् । लघीयस्त्रय, १४ १२६. चन्द्रादेर्जलचन्द्रादिप्रतिपत्तिस्तथानुमा । - लघीयस्त्रय, १३ १२७. परस्पराविना भूतौ नामौन्नामी तुलान्तयोः । -- सिद्धिविनिश्चय ६.१५ एवं न्यायविनिश्चय, २.१६९ १२८. श्व आदित्य उदेतेति ग्रहणं वा भविष्यति ॥ - लघीयस्त्रय, १४ १२९. चन्द्रादेर्वाग्भागदर्शनात् परभागोऽनुमीयते । - सिद्धिविनिश्चय वृत्ति, ६ . २, पृ.३७३ १३०. एकलक्षणसामर्थ्याद् हेत्वाभासाः निवर्तिताः । विरुद्धानैकान्तिकासिद्धाज्ञाताकिञ्चित्करादयः ॥ - सिद्धिविनिश्चय, ६.३२ १३१. न ह्येकलक्षणाभावें त्रिलक्षणं गमकम् ।- सिद्धिविनिश्चय, वृत्ति, पृ. ४३० १३२. न तद्युक्तं हेत्वाभासेऽपि संभवात् । असाधारणतापायाल्लक्षणत्वविरोधतः । - तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, १.१३.१२५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002113
Book TitleBauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, & Religion
File Size20 MB
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