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________________ १८८ बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा नहीं कर सकता।३४० प्रभाचन्द्र ने विद्यानन्द एवं अभयदेवसूरि के समान विकल्प का शब्द संश्रित होना आवश्यक नहीं माना है तथा बौद्ध सम्मत शब्दाश्रित विकल्प का खण्डन किया है । प्रभाचन्द्र कहते हैं कि समस्त विकल्पों का स्वरूप उनका शब्दाश्रित होना नहीं है, अपितु वे समारोप के विरोधी होते हैं ।३४१ निर्विकल्पक ज्ञान से विकल्पज्ञान की उत्पत्ति संभव नहीं- बौद्ध मन्तव्यानुसार निर्विकल्पक ज्ञान विकल्पज्ञान को उत्पन्न करके व्यवहार का अंग बनता है । जैन दार्शनिक विद्यानन्द एवं अभयदेव के समान प्रभाचन्द्र ने भी इस मंतव्य का निरसन किया है। प्रभाचन्द्र कहतेहैं कि विकल्प को उत्पन्न करने का सामर्थ्य होना एवं अविकल्पक होना परस्पर विरोधी है। यदि विकल्प की वासना से युक्त निर्विकल्प प्रत्यक्ष विकल्प को उत्पन्न करने में समर्थ होता है तो फिर अर्थ को ही विकल्प उत्पन्न करने वाला क्यों नहीं मान लिया जाता है ? व्यर्थ ही निर्विकल्पक को मानने से क्या लाभ? यदि अर्थ अज्ञात है अतः वह विकल्पोत्पादक नहीं हो सकता है तो निर्विकल्प ज्ञान भी अनिश्चयात्मक है वह भी विकल्प को उत्पन्न नहीं कर सकता। उभयत्र स्थिति समान है । यदि निर्विकल्प का अनुभव होने मात्र से वह विकल्पोत्पादन में समर्थ है तो क्षणक्षयादि का भी अनुभव होने से वे भी विकल्पोत्पादन में समर्थ होंगें। यदि बौद्ध यह कहें कि जिस पदार्थ में दर्शन विकल्प वासना का प्रबोधक होता है वहां ही वह विकल्प की उत्पत्ति करता है तो यह भी असाम्प्रत है,क्योंकि नीलादि में अनुभव मात्र जिस प्रकार विकल्प वासना का प्रबोधक होता है उसी प्रकार क्षणक्षयादि में भी वह विकल्प वासना का प्रबोधक होना चाहिए।३४२ यदि क्षणक्षयादि में अभ्यास, प्रकरण,बुद्धिपाटव एवं अर्थित्व का अभाव होता है इसलिए क्षणिकादि का अनुभव विकल्पवासना का प्रबोधक नहीं होता है तो यह कथन भी उचित नहीं है,क्योंकि इन चारों का क्षणक्षयादि में सद्भाव है। प्रभाचन्द्र अभ्यास,प्रकरण,आदि को क्षणक्षयादि में सिद्ध करते हैं, यथाअभ्यास- भूयोदर्शन अभ्यास है,या बहुत बारविकल्प उत्पन्न करना अभ्यास है ? भूयोदर्शन अभ्यास है तो वह नीलादि के समान क्षणिकता में समान रूप से पाया जाता है । यदि बहुत बार विकल्प उत्पन्न AR ३४०. न चात्रावस्थायां नामसंक्रयतयाऽननुभूयमानानामपि विकल्पानां संभवः अतिप्रसंगादित्युक्तिमात्रम् । - संहृतसकल विकल्पावस्थायां स्थिरस्थूलादिस्वभावार्थसाक्षात्कारिणो-निश्चयहेतुत्वात् तस्य प्रामाण्यमित्ययुक्तम, संशयादिकिकल्पजनकस्यापि प्रामाण्यप्रसंगात नहि नीलादिविकल्पोऽपि स्वलक्षणाध्यवसायी.। तदनालम्बनस्य तदध्यवसायित्वविरोधात् ।-प्रमेयकमलमार्तण्ड, भाग-१ पृ०९६-९८ ३४१.न चाशेषविकल्पानां नामसंक्रयतेव स्वरूपम्,समारोपविरोधि-ग्रहणलक्षणत्वात् तेषाम् ।- प्रमेयकमलमार्तण्ड, भाग-१, पृ०९७ ३४२. द्रष्टव्य, प्रमेयकमलमार्तण्ड, भाग-१, पृ०९८-१०० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002113
Book TitleBauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, & Religion
File Size20 MB
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