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________________ बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा एवं (2) नैमित्तिकी । नाम युक्त कल्पना को यादृच्छिकी तथा जात्यादि से युक्त कल्पना को नैमित्तिकी कहा है । सिंहसूरि का कथन है कि रूप, आलोक, चित्त एवं चक्षु से चक्षुर्विज्ञान उत्पन्न होता है तथापि चक्षु असाधारण कारण है अतः प्रत्यक्ष को चक्षुर्विज्ञान शब्द से व्यपदिष्ट किया जाता है। २२० 1 १४४ प्रत्यक्ष निर्विकल्पक होता है, इसे मल्लवादी ने अभिधर्मपिटक के वाक्य द्वारा निरूपित किया है । तदनुसार चक्षुर्विज्ञानसंतान नील को जानता है, किन्तु 'वह नील है ' इस प्रकार उसे शब्दयुक्त नहीं जानता । प्रकरणपाद में भी कहा गया है कि 'यह नील है' इस प्रकार कथन करने वाला नील अर्थ को नहीं देखता है । अभिधर्मपिटक में इसे ही 'अर्थेऽर्थसंज्ञी न त्वर्थे धर्मसंज्ञी' कथन द्वारा अभिहित किया गया है। अर्थ को अर्थ रूप में जानना अर्थसंज्ञा तथा उसे यदृच्छादि नाम देना धर्मसंज्ञा है । धर्म को नाम, पद एवं व्यंजनकाय कहा गया है। २२१ उत्तरपक्ष - आचार्य मल्लवादी क्षमाश्रमण ने दिङ्नाग प्रणीत प्रत्यक्ष-लक्षण को खरविषाणादि के समान अलौकिक होने के कारण कल्पित एवं निष्फल सिद्ध किया है। मल्लवादी कहते हैं कि दिङ्नाग के लक्षण में स्ववचन विरोध है, जिसका परिहार दुस्तर है । जिस प्रकार दिङ्नागीय वचन कल्पनात्मक होने के कारण प्रत्यक्ष नहीं है, उसी प्रकार कल्पनापोढ रूप प्रत्यक्षलक्षण भी कल्पनात्मक होने के कारण अप्रत्यक्ष है । दिङ्नाग प्रणीत प्रत्यक्ष लक्षण को कल्पनात्मक सिद्ध करने के लिए मल्लवादी अनेक तर्क उपस्थापित करते हैं, यथा (१) निरूपणविकल्पात्मकत्वात् - प्रत्यक्ष का निरूपण किया जा सकता है कि 'यह ऐसा है'। उसका निरूपण करना ही विकल्प है । प्रत्यक्ष निरूपणात्मक होता है षटत्वादि ज्ञान के समान । अतः वह ज्ञान विकल्पात्मक सिद्ध होता है। इन्द्रियज्ञान भी निरूपणविकल्पात्मक है, इसकी सिद्धि के लिए मल्लवादी ने आगे तर्क प्रस्तुत किया है कि प्रत्यक्ष से आलम्बन के विपरीत ज्ञान होता है। (२) आलम्बनविपरीतप्रतिपत्त्यात्मकत्वात् - प्रत्यक्ष का आलम्बन प्रत्यय द्रव्यरूप नीलादि परमाणु हैं, उनका समूह नील पीतादि आकारवान् पदार्थ नहीं, क्योंकि समूह रूप नीलपीतादि का आकार परमार्थसत् नहीं, सर्वृतिसत् है । जबकि प्रत्यक्ष द्वारा परमाणुसमूह अथवा परमाणुसंघात का ज्ञान होता है, पृथक्-पृथक् परमाणुओं का नहीं । द्रव्य परमाणुओं में सबके नील पीतादि आकार भिन्न-भिन्न होने चाहिए, किन्तु ऐसी प्रतिपत्ति नहीं होती । संवृतिसत् रूप से नीलपीतादि रूप एक ही आकार का प्रत्यक्ष होता है। इस प्रकार जैसा ज्ञान होता है वैसा आलम्बन नहीं होता। आलम्बन के विपरीत ज्ञान होने से यह कल्पनात्मक है, अतः प्रत्यक्ष नहीं कहा जा सकता। २२० द्रष्टव्य, परिशिष्ट - ख २२१. द्रष्टव्य, परिशिष्ट- ख Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002113
Book TitleBauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, & Religion
File Size20 MB
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