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________________ १३० बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा आत्ममात्र सापेक्ष ज्ञान में अवधिज्ञान का असम्यक् रूप विभङ्गज्ञान व्यभिचार युक्त होता है,उसका निवारण करने के लिए ही अकलङ्कने अतीतव्यभिचार पद दिया है । ज्ञान के पूर्व जैनदर्शन में दर्शन का प्रवर्तन माना गया है,किन्तु दर्शन निराकार एवं निर्विकल्पक होता है,अतः इसका परिहार करने के लिए 'साकार' शब्द का प्रयोग किया गया है । अकलङ्क ने यहां स्पष्ट कर दिया है कि प्रत्यक्ष ज्ञान में पर (आत्मा से अन्य) की अपेक्षा नहीं होती है ।१२८ पूज्यपाद ने सर्वार्थसिद्धि में यह प्रश्न उठाया है कि जैनदर्शन में इन्द्रियव्यापार से जनित ज्ञान को अन्य भारतीय दार्शनिकों की भांति प्रत्यक्ष एवं इन्द्रिय व्यापार से रहित ज्ञान को परोक्ष क्यों नहीं कहा गया ? पूज्यपाद ने जैन ज्ञानमीमांसा के आधार पर इसका समाधान प्रस्तुत किया है । जैनदर्शन में सर्वज्ञ आप्तपुरुष प्रत्यक्ष- ज्ञान द्वारा समस्त पदार्थों को जानता है । यदि सर्वज्ञ का प्रत्यक्ष इन्द्रिय के निमित्त से हो तो सर्वज्ञ समस्त पदार्थों को प्रत्यक्षपूर्वक नहीं जान सकेगा,अर्थात् उसकी सर्वज्ञता सिद्ध नहीं हो सकेगी,किन्तु आप्तपुरुष सर्वज्ञ है तथा वह समस्त पदार्थों का प्रतिक्षण प्रत्यक्ष करता है। उसकी यह प्रत्यक्षता तभी सिद्ध हो सकती है,जब वह मात्र आत्मा द्वारा समस्त अर्थों को जानता हो ।१२९ पूज्यपाद के समाधान को अकलङ्क ने भी विस्तृतरूपेण प्रस्तुत कर पुष्ट किया है ।१३० अब प्रश्न उठता है कि इन्द्रियादि के बिना आत्मा को बाह्यार्थों का प्रत्यक्ष किस प्रकार होता है ? अकलङ्कने इसका समाधान प्रस्तुत करते हुए कहा है कि जिस प्रकार रथ का निर्माता तपोविशेष के प्रभाव से ऋद्धिविशेष प्राप्त करके बाह्य उपकरणादि के बिना भी रथ का निर्माण करने में सक्षम होता है, उसी प्रकार आत्मा भी ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम विशेष अथवा सम्पूर्णक्षय से इन्द्रियादि बाह्यसाधनों के बिना ही बाह्यार्थों को जानने में सक्षम होता है ।१३१ संक्षेप में यह कहा जा सकता है आगमिक -परम्परा के अनुसार प्रत्यक्ष -प्रमाण आत्माश्रित है तथा ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम अथवा क्षय से बाह्यार्थों का ज्ञान होता है,इसमें इन्द्रियादि के सहयोग की अपेक्षा नहीं होती है। (2) प्रमाण-व्यवस्थायुगीन धारा जब जैन दार्शनिकों ने यह अनुभव किया कि इन्द्रिय एवं मनोजन्य ज्ञान को प्रत्यक्ष मान बिना न्याय,मीमांसा,सांख्य एवं बौद्ध दर्शनों के साथ प्रमाणचर्चा में भाग नहीं लिया जा सकता.तब उन्होंने भी इन्द्रिय एवं मनोजन्य ज्ञान को प्रत्यक्ष नाम देकर उसे प्रत्यक्ष कोटि में प्रतिष्ठित किया। यद्यपि नन्दीसूत्र में पाँच ज्ञानों को प्रत्यक्ष एवं परोक्ष भेदों में विभक्त किया गया है तथा प्रत्यक्ष के भी १२८. अक्षं प्रति नियतमिति परापेक्षानिवृत्तिः।-तत्त्वार्थवार्तिक, १.१२, पृ०५३ १२९. तदयुक्तम.आप्तस्य प्रत्यक्षझानाभावप्रसझत् । यदिइन्द्रियनिमित्तमेव ज्ञानं प्रत्यक्षमिष्यते एवं सति आप्तस्य प्रत्यक्षज्ञानं नस्यात्।- सर्वार्थसिद्धि. १.१२, पृ०७२ १३०. द्रष्टव्य, तत्त्वार्थवार्तिक, भाग-१, पृ०५३-५४ १३१. तत्त्वार्थवार्तिक, माग-१, पृ०५३ - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002113
Book TitleBauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, & Religion
File Size20 MB
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