________________
समाधिमरण एवं मरण का स्वरूप
८१ आत्महत्या के कारणों पर प्रकाश डालते हुए इसमें अपनाने वाली विधियों पर भी व्यापक चर्चा की है। उनके अनुसार व्यक्ति ऊँचाई से कूदकर, जल समाधि लेकर, गाड़ी के नीचे दबकर, गोली मारकर, विषपान करके, आदि विधियों की सहायता से आत्महत्या करता है। आत्महत्या करते वक्त व्यक्ति की मानसिक स्थिति ठीक नहीं रहती है। उस समय व्यक्ति के सोचने समझने की शक्ति खत्म हो जाती है।८६
उपर्युक्त चिन्तन के आधार पर हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि आत्महत्या एक असामान्य व्यक्ति की मनोदशा का परिचायक है। सामान्य अवस्था में व्यक्ति देहत्याग के विषय में बात करना भी पसन्द नहीं करता है, लेकिन कुछ परिस्थितियों में वह देह का त्याग कर देता है। आत्महत्या करते वक्त व्यक्ति उत्तेजना की चरम सीमा को पार कर जाता है, क्योंकि ऐसा नहीं करने पर मोहग्रस्त होकर वह देहत्याग नहीं कर सकता है। समाधिमरण की प्रक्रिया में भी देहत्याग किया जाता है, लेकिन दोनों अवस्थाओं में किया जानेवाला देहत्याग भिन्न है। एक आवेग और आवेश युक्त अवस्था में किया जाता है तो दूसरा आवेग और आवेश मुक्त अवस्था में किया जाता है। अत: दोनों में बहुत बड़ा अन्तर है। इन दोनों में पाये जानेवाले अन्तरों का चित्रण जैनग्रंथों एवं आधुनिक चिन्तकों के विचारों के आधार पर किया जा सकता है।
आत्महत्या और समाधिमरण के अन्तर को स्पष्ट करते हुए सर्वार्थसिद्धि एवं तत्त्वार्थवार्तिक ८ में कहा गया है कि आत्महत्या जहाँ व्यक्ति बलपूर्वक या अपनी आन्तरिक इच्छा के विरुद्ध करता है, वहीं समाधिमरण कभी भी बलपूर्वक नहीं कराया जाता है। वह व्यक्ति की स्वत: प्रेरणा पर निर्भर करता है। व्यक्ति निश्चय करता है कि धर्म की रक्षा के लिए समाधिमरण द्वारा देहत्याग करे या नहीं। अत: आत्महत्या और समाधिमरण का एक अन्तर यह भी है कि जहाँ आत्महत्या लपूर्वक और जीवन की आकांक्षा रखते हुए परिस्थितिवश की जाती है वहीं समाधिप कभी भी बलपूर्वक या जीवन की आकांक्षा होते हुए नहीं किया जाता है।
तत्त्वार्थवार्तिक के अनुसार राग-द्वेष क्रोधादिपूर्वक प्राणों के नाश किए जाने को अपघात या आत्महत्या कहते हैं। लेकिन समाधिमरण में न तो राग है, न द्वेष है और न ही प्राणों के त्याग का अभिप्राय ही है। इसे ग्रहण करनेवाला व्यक्ति जीवन और मरण दोनों के प्रति अनासक्त रहता है।८९ जीवन और मरण के प्रति अनासक्त रहने के कारण उसे न तो जीवन की आकांक्षा होती है और न ही शीघ्र मृत्यु की, अर्थात् वह जो देहत्याग करता हैं मात्र इस भाव से की मृत्यु अनिवार्य है, यह शरीर नष्ट होनेवाला है । इसके प्रति राग रखना व्यर्थ है। अगर यह शरीर नष्ट होनेवाला है तो इसका पालन-पोषण करने से कोई
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org