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है । समाधिमरण में इसी देहाशक्ति को खत्म किया जाता है । कहा भी गया है समाधिमरण जरा, रोग, इन्द्रिय, शरीर बल की हानि तथा षडावश्यक के नाश होने की स्थिति में स्वीकार किया जाता है । व्यक्ति को जब यह विदित हो जाता है कि दैहिक विकारों तथा इसी तरह के अन्यान्य कारणों से अब यह शरीर अधिक समय तक टिकनेवाला नहीं है। इसको स्वस्थ रखने के सारे प्रयत्न व्यर्थ हो जानेवाले हैं अथवा हो चुके हैं। इसकी जीर्णता स्वयं तथा दूसरों के लिए कष्टकारी बन गये हैं । अब यह शरीर दैनिक कार्यों तथा धर्माराधना में भी सहयोगी नहीं रह गया । ऐसी ही विकट परिस्थितियों में दैहिक ममत्व का परित्याग करके समाधिमरण ग्रहण किया जाता है ।
इसी अनुक्रम में जैन परम्परा ने दो प्रकार के समाधिमरण का विधान प्रस्तुत किया है- (१) सागारी (२) सामान्य । अनायास ऐसी विषम परिस्थिति में फँस जाने पर जिसमें प्राणत्याग करने के अतिरिक्त कोई अन्य मार्ग शेष नही बचता तब सागारी संथारा ग्रहण किया जाता है । सौभाग्यवश व्यक्ति इस विषम परिस्थिति से बच निकलता है तब वह सामान्य जीवन यापन करने लगता है । दूसरी स्थिति में समाधिमरण जीवन भर के लिए स्वीकार किया जाता है । इस हेतु जैनों ने बारहवर्षीय संथारा का विधान प्रस्तुत किया है। यह एक विशेष प्रकार की क्रिया-विधि है जिसका परिपालन अत्यन्त संयम, निष्ठा, धैर्य एवं पवित्र मन से किया जाता है । इस अनुक्रम में साधक कषाय को क्षीण करते हुए राग-द्वेष को क्रमश: अल्प करता जाता है।
समाधिमरण अल्प कषाय एवं कमजोर राग-द्वेष होने पर ही किया जाता है। यही कारण है कि व्यक्ति इस समय देहपात करने में भावात्मक भ्रान्ति नहीं पालता है। भावना का आवेग कषाय से चालित होता है जो व्यक्ति को राग-द्वेष से जोड़ता है। इसी के वशीभूत होकर मनुष्य आत्महत्या के द्वारा देहत्याग कर लेता है । अब यहाँ एक प्रश्न उठता है क्या समाधिमरण भी आत्महत्या का एक प्रकार है? भ्रान्तिवश लोग इस तरह के प्रश्न समाधिमरण के सम्बन्ध में उठाते रहे हैं । सम्भवत: वे यह भूल जाते हैं कि आत्महत्या तीव्र संवेग तथा किसी तरह के भावात्मक आवेश में आकर की जाती है, जबकि समाधिमरण में इसका अभाव रहता है । यहाँ न तो रागात्मक भाव पाया जाता है और न द्वेषात्मक प्रवृत्ति ही । अनासक्ति ही समाधिमरण का मूलमंत्र है।
जैन चिन्तन मे आत्महत्या को अनैतिक एवं असामाजिक कृत्य कहा गया है। लौकिक एवं आध्यात्मिक स्तर पर इसका निषेध किया गया है। लेकिन जैन परम्परा में सद्गुणों के रक्षण हेतु देहत्याग का व्यापक सर्मथन भी हुआ है। यहाँ यह स्पष्ट किया गया है कि शरीर एवं सद्गुण रक्षण में से किसी एक के चयन का प्रसंग उपस्थित होने पर व्यक्ति को नि:संकोच सद्गुणों की रक्षा करनी चाहिए। उसका यह निर्णय धर्मसम्मत, समाजसम्मत, नीतिसम्मत एवं आध्यात्म से परिपूर्ण माना जाएगा , क्योंकि सदगुणों को
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