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________________ प्रकाशकीय जैन परम्परा के सामान्य आचार नियमों में संलेखना या संथारा का महत्त्वपूर्ण स्थान है । जैन गृहस्थ उपासकों एवं श्रमण साधकों दोनों के लिए स्वेच्छापूर्वक मृत्युवरण का विधान जैन आगमों में भी उपलब्ध है। जैन आगम साहित्य ऐसे साधकों की जीवन गाथाओं से भरा पड़ा है जिन्होंने समाधिमरण का व्रत ग्रहण किया था । संथारा या समाधिमरण में मनुष्य का मृत्यु पर शासन होता है, जबकि अनिच्छापूर्वक मरण में मृत्यु मनुष्य पर शासन करती है । इनमें प्रथमावस्था पण्डितमरण की अवस्था है तो दूसरी अवस्था बालमरण (अज्ञानी मरण) की अवस्था है । एक ज्ञानी की मौत है तो दूसरी अज्ञानी की । अज्ञानी विषयासक्त होता है इसलिए वह मृत्यु से डरता है, जबकि सच्चा ज्ञानी अनासक्त होता है, अत: वह मृत्यु से नहीं डरता है । जो मृत्यु से भय खाता है वह मृत्यु का शिकार होता है, लेकिन जो मृत्यु से निर्भय हो जाता है वह अमरता की दिशा में आगे बढ़ जाता है । साधकों के प्रति महावीर का सन्देश यही था कि मृत्यु के उपस्थित होने पर शरीरादि से अनासक्त होकर उसे आलिंगन दे दो। ___ महावीर के दर्शन में अनासक्त जीवन शैली की इस महत्त्वपूर्ण कसौटी के विभिन्न पक्षों का लेखक डॉ० रज्जन कुमार ने इस पुस्तक में प्रामाणिक विवेचन किया है, अत: वे धन्यवाद के पात्र हैं। साथ ही हम संस्थान के प्रवक्ता डॉ० विजय कुमार के आभारी हैं जिन्होंने इस पुस्तक के सम्पादन में सहयोग देने के साथ-साथ प्रकाशन सम्बन्धी दायित्वों का भी निर्वहन किया है। ____ अन्त में सुन्दर अक्षर-सज्जा के लिए राजेश कम्प्यूटर्स एवं स्वच्छ मुद्रण हेतु राघव ऑफसेट को धन्यवाद देता हूँ। दिनांक : ११.९.२००१ प्रो० सागरमल जैन मंत्री । पार्श्वनाथ विद्यापीठ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002112
Book TitleSamadhimaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajjan Kumar
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2001
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Epistemology
File Size10 MB
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