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समाधिमरण
जाता है और यह संसार की वृद्धि नहीं करता है।
हिन्दू परम्परा में मृत्युवरण के लिए मात्र बाह्य विधियों का ही सहारा नहीं लिया जाता है। समाधिमरण में जिस तरह से अनशनपूर्वक देहत्याग किया जाता है, उसी प्रकार अनशनपूर्वक देहत्याग का विधान यहाँ भी मिलता है। जैसे- महाप्रस्थान लेनेवालों के लिए यह स्पष्ट शब्दों में निर्देश है कि व्यक्ति तीर्थस्थलों, पहाड़ों, निर्जन वनो, क्षेत्रों आदि स्थानों पर तब तक बिना अन्न-जल ग्रहण किए चलता रहे जब तक कि उसका प्राणान्त न हो जाए। प्रश्न होता है- क्या महाप्रस्थान लेनेवाले जो अनशन करते हैं उनके पीछे भी मृत्यु की कामना होती है? मेरी दृष्टि में उनके पीछे मृत्यु की कामना नहीं होती है अगर किसी तरह की कामना या आकांक्षा होती है तो वह है मोक्ष प्राप्ति की कामना और मोक्ष-प्राप्ति की कामना कोई दूषित भावना नहीं है।*
प्रत्येक धर्म की अपनी-अपनी मान्यताएँ हैं। उन्हीं मान्यताओं के अनुसार व्यक्ति अग्निप्रवेश, जलसमाधि, विषपान, पहाड़ से कूदना आदि विधियों को अपनाकर मृत्युवरण करता है। इन विधियों से जिस समय मरण ग्रहण किया जाता है उस समय व्यक्ति के मन में मृत्यु की कामना भी नहीं होती है। अत: उसे लोकमूढ़ता नहीं कहा जा सकता है। हाँ ! इतना अवश्य कहा जा सकता है कि यह मृत्युवरण करने का उग्र रूप है लेकिन लोकमूढ़ता नहीं है। इस प्रकार से मृत्युवरण करना कभी भी लोकमूढ़ता नहीं हो सकती है। क्योंकि धर्म को माना जाय और शास्त्रों में विश्वास किया जाए तथा इनकी रचना करनेवालों के ज्ञान पर विश्वास किया जाए जिन्होंने मरण की इन विधियों का समर्थन किया है, तो यह मूढ़तापूर्ण नहीं हो सकता है।
एक बात और ध्यान देने की है कि ब्राह्मण परम्परा में भी मृत्युवरण करने के लिए कुछ अनिवार्य योग्यताएँ निर्धारित की गई हैं, जैसे - युवा, स्वस्थ तथा गृहस्थ व्यक्ति मृत्यवरण नहीं कर सकता है। जिन्होंने अपने समस्त कार्य पूर्ण कर लिए, गृहस्थ आश्रम की सारी आवश्यकताओं को पूर्ण कर वानप्रस्थ आश्रम को ग्रहण कर लिया वे ही तीर्थ स्थलों पर अपने मन को शुभ ध्यान से पूर्ण करते थे तथा जब उन्हें यह ज्ञात हो जाता था कि उनके सम्पूर्ण कर्म क्षय हो गए हैं तब वे शास्त्र सम्मत किसी भी विधि को अपनाकर मृत्यु का वरण कर लेते थे। उनके कर्मों का क्षय हुआ है या नहीं इसके बारे में योग्य आचार्य अपनी सम्मति व्यक्त करते थे। दुर्बल शरीरवाले व्यक्ति, असाध्य रोग से ग्रसित व्यक्ति तथा अनिवार्य रूप से मरणासन्न व्यक्ति ही मृत्युवरण करते थे। इस तरह * जैन परम्परा इसे लोकमूढ़ता इसलिए कहती है कि यह मरणाकांक्षा या स्वर्ग की
आकांक्षा है- सम्पादक
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