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समाधिमरण
हैं। अत: दोनों में महापथ शब्द का प्रयोग होते हुए भी अन्तर है। जहाँ तक आधुनिक चिन्तन की बात है तो महापथ का अर्थ राजमार्ग भी हो सकता है जिसपर सभी लोग चलते हैं।
शल्यपर्व में कहा गया है कि जो व्यक्ति सरस्वती नदी के तट पर मन्त्रोच्चार के साथ देहत्याग करता है वह मरने के बाद होनेवाली पीड़ा को नहीं भोगता है।५०
अनुशासन पर्व में कहा गया है कि जो व्यक्ति वेदों को जानता है तथा जीवन की नश्वरता और क्षणभंगुरता को जानता है हिमालय की चोटी पर भूखे रहकर अपने प्राण का त्याग करता है, वह ब्रह्मलोक में निवास करता है और सभी प्रकार के दुःखों से मुक्त हो जाता है।५५
मनुस्मृति में महाप्रस्थान के बारे में कहा गया है कि व्यक्ति को दक्षिण दिशा में सिर्फ वायु और जल के साथ तब तक चलना चाहिए जब तक कि उसका प्राणान्त नहीं हो जाए।
पवित्र तीर्थस्थलों पर आत्मबलिदान करने के विधानों का वर्णन बहुत से ग्रन्थों में मिलता है। तीर्थविवेचन कांडम् नामक ग्रन्थ में आत्मबलिदान पर व्यापक रूप से चर्चा की गई है । ग्रन्थ के रचयिता लक्ष्मीधर भट्ट को माना जाता है, जो कन्नौज के राजा गोविन्दचन्द्र के मंत्री थे। उन्होंने अपने इस ग्रन्थ में भारत के प्राचीनतम ग्रन्थों को उद्धृत करते हुए राजसिक, आचार, व्यवहार, कर्मकांड तथा अन्यान्य विषयों का प्रामाणिक सन्दर्भ प्रस्तुत किया है। इस ग्रन्थ के अनुसार- प्रयाग में गंगा-यमुना के संगम स्थल पर या काशी में सिर के बल जलती हुई अग्नि के ऊपर उल्टा लटककर, अपने शरीर के मांस, आदि को काट-काटकर पशु-पक्षियों को खिलाकर, जल में प्रवेश करके आदि विधियों से प्राण त्यागने पर व्यक्ति पुनर्जन्म से छुटकारा पा जाता है और उसे सांसारिक बन्धनों से मुक्ति मिल जाती है।५४
प्रयाग में संगम पर इच्छितमरण करनेवाला व्यक्ति स्वर्ग को जाता है और स्वर्ग में लम्बे समय तक वहाँ के सुखों का उपभोग करता है। पुन: उसके जन्म लेने का समय आता है तो वह अच्छे वंश या कुल में जन्म लेता है तथा जम्बूद्वीप का स्वामी बनता है।५५ तीर्थविवेचन कांडम के अनुसार जो व्यक्ति वटवृक्ष से संगम की धारा में कूदकर प्राणान्त करता है, वह रुद्रलोक का निवासी बन जाता है।५६
अग्निपुराण में इच्छित मृत्युवरण का समर्थन करते हुए लिखा गया है- जो व्यक्ति
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