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समाधिमरण एवं ऐच्छिक मृत्युवरण
२०९ स्त्री के परिवारवाले उसे हर तरह से प्रताड़ित करते हैं। भोजन, वस्त्र, सम्बन्धी समस्याएं पैदा करते हैं। वह स्त्री इन समस्त आवश्यकताओं की पूर्ति किसी तरह कर लेती है। पुनः उस स्त्री को शारीरिक तथा मानसिक कष्ट दिया जाता है । वह इस प्रताड़ना को भी सहन करती है। अब उस स्त्री के सतीत्व पर प्रहार करने का प्रयास किया जाता है, वह स्त्री अपनी शक्ति भर इससे बचने का प्रयास करती है। लेकिन जब वह अपने सतीत्व की रक्षा के प्रयास में सफल नहीं हो पाती है या उसे यह ज्ञात होने लगता है कि अब वह उसमें किसी भी तरह से सफल नहीं हो पायेगी तो क्या उसे ऐच्छिक मृत्युवरण करने का अधिकार है? ऐसी परिस्थिति में उस स्त्री को ऐच्छिक मृत्यूवरण करने का अधिकार है और इसके लिए वह स्वतन्त्र भी है। क्योंकि धर्म में पतित होने की अपेक्षा देहत्याग करके धर्म की रक्षा करना उत्तम है। इस परिस्थिति में देहत्याग करने के लिए वह कौन सी विधि या साधन का प्रयोग करती है यह समय और अवसर पर निर्भर करता है।
संदर्भ :
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७.
दर्शन और चिन्तन (खण्ड-२), पृ०-५३३-३४, पं० सुखलालजी संघवी, सन्मान समिति, गुजरात विधानसभा, अहमदाबाद, १९५७. भारद्वाज गृह्यसूत्र, सूत्र १,२. कौशिक गृह्यसूत्र, ५,३,६, एवं विशे० द्रष्टव्य-अथर्ववेद १८,३,१-२. मृते भर्तरि ब्रह्मचर्य तदन्वारोहजं वा ।। -विष्णुधर्मसूत्र, २५, १४. वृहस्पति स्मृति २५, ११. मृतं भर्तार्मादाय ब्राह्मणीवहिन्माविंशेत् । जीवन्ती चेत्यक्तकेशा तपसा शोषयेद्वपुः ॥
व्यासस्मृति, उद्धृत-हिस्ट्री ऑफ धर्मशास्त्र, काणे, भाग- २, ५३. कुलत्रयं पुनात्येषा भर्तारं या नुगच्छति ॥ मिताक्षरी, ८६. या स्त्री मृतं पिरष्वज्य दग्धा चेद्धव्यवाहने। सा भतृलोकमाप्नोति ........ साध्वीनामिह नारीगामग्निप्रपतनाहते। नान्यो धोऽस्ति विज्ञेयो मृते भर्तरि कुत्रचित। वैष्णवं पतिमादाय या दग्धा हव्यवाहने। सा वैष्णवपदं याति यत्र गच्छन्ति योगिनः।
उद्धृत- धर्मशास्त्र संग्रह, जीवानंद पृ०-३९५, कलकत्ता, १९८६. मृते भर्तरि या नारी समारोहे ताशनम्। सा भवेत्तु शुभाचारा स्वर्गलोके महीयते।। दक्षस्मृति, ४/३३.
९.
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