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समाधिमरण एवं ऐच्छिक मृत्युवरण
२०७ अन्तिम क्षण तक संघर्ष करने की क्षमता का लोप हो जाएगा। साथ ही आज जो रोग असाध्य है वह कल साध्य भी हो सकता है? फिर इतनी जल्दी पराजय स्वीकार करने का तो कोई औचित्य ही नहीं जान पड़ता । आज पूरे विश्व में अनचाहे गर्भ से मुक्ति प्राप्त करना वैध घोषित किया जा चुका है। जब हमने उस जीव से बिना अनुमति लिए ही उसे समाप्त करने का अधिकार प्राप्त कर लिया है, तो फिर स्वयं के जीवन के प्रति ये अधिकार क्यों नहीं प्राप्त हो सकता है?
यदि स्वेच्छा से मृत्युवरण की वैधता प्रदान कर दी गयी तो व्यक्ति में घोर निराशावादी प्रवृत्ति घर कर लेगी। इसके अतिरिक्त विभिन्न तरह के जटिल रोगों के निदान हेतु जो अनुसन्धान एवं शोध कार्य होते हैं या हो रहे हैं उनमें शिशिलता आ जाएगी। सम्भव है कोई नयी खोज हो ही नहीं। इससे मानव समुदाय को अपार कष्ट होने की सम्भावना है।
एक दुःखी एवं असाध्य रोग से पीड़ित व्यक्ति को सुखमय मृत्यु अथवा कष्टप्रद जीवन में से किसी एक को चयन करने का अधिकार मिलना ही चाहिए। यदि वर्तमान का औषधि विज्ञान भी रोगी की सहायता करने में अक्षम हो एवं रोगी की मृत्यु होनी निश्चित है, तो व्यक्ति को कष्टपूर्वक मरते देखने का क्या औचित्य है? ऐसे रोगग्रस्त व्यक्तियों को स्वेच्छापूर्वक मृत्युवरण करने का अधिकार मिलना ही चाहिए और यह उचित भी है। किन्तु कहा जा सकता है कि एक ओर कैंसर तथा इसी तरह के अन्य असाध्य रोगों को साध्य करने की दिशा में शोधकार्य चल रहे हैं तथा मानव के मन में आशा की ज्योति प्रज्वलित करने के प्रयास किए जा रहे हैं, वहीं दूसरी ओर स्वेच्छा से मृत्युवरण सदृश कुण्ठित विचारधाराओं को प्रोत्साहन देने का कोई औचित्य नहीं है।
झूठे चमत्कारों की आशा दिलाकर किसी मरणासन्न व्यक्ति को जीवित रखना, उसके साथ विश्वासघात करने जैसा है। मनुष्य को स्वयं उसके अपने जीवन पर तो अधिकार होना ही चाहिए।
मनुष्य इस प्रकृति की श्रेष्ठतम रचना है एवं उसे समाप्त करने का अधिकार प्रकृति के अतिरिक्त अन्य किसी को नहीं है, स्वयं उस मनुष्य को भी नहीं। जब हम किसी को जीवन नहीं दे सकते हैं, तो हमे जीवन लेने का अधिकार भी नहीं है।
किसी प्रज्ञाशून्य व्यक्ति अथवा एड्स जैसे भीषण रोग (यह रोग ऐसा है, जिसका अभी तक निदान सम्भव नहीं हो सका है) इस रोग से ग्रसित व्यक्ति की अन्य रोगों से
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