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________________ २०४ समाधिमरण चाहनेवाला व्यक्ति अपराधी है ? क्या इसकी स्वतन्त्रता नहीं है ? इस प्रश्न पर काका कालेलकर ने गहन अध्ययन किया और लिखा कि भूखे को अन्न देना, प्यासे को पानी देना, थके हुए को आराम देना, डरे हुए को अभयदान देना, शरणागत को आश्रय देना आदि सेवा के भाव हैं और प्रशंसनीय हैं। यदि किसी जीव का जीवन असह्य हो जाए, उसके जीने का कोई अर्थ नहीं रह जाए, मरना उसके लिए अनिवार्य हो जाए तो क्या वह स्वयं या किसी की सहायता से मरण नहीं कर सकता है? क्या उसे मरण में सहायता देनेवाला या स्वयं वह अपराधी है ? काका साहेब ने इसका समर्थन किया है और एक उदाहरण की सहायता से मरणदान को स्पष्ट किया- “किसी व्यक्ति को कुष्ठ रोग हो गया था। तरह-तरह के इलाज कराने पर भी उसका रोग ठीक नहीं हुआ । कुष्ठ रोग उसके सारे शरीर में फैल गया। हाथपाँव, नाक-कान, आँख आदि सभी अंग अक्षम हो गए। उसकी सेवा करनेवाले लोग थक गए। अपनी इस स्थिति से दुःखी होकर उस असहाय व्यक्ति ने डाक्टर से कहा- अब मेरे जीने का क्या मतलब रहा? मेरा यह वेदनापूर्ण निरर्थक जीवन किस काम का रहा? क्या ऐसे घृणित जीवन से मुक्ति दिलाना तुम्हारा कर्तव्य नहीं है? क्या तुम मुझे मरणदान नहीं दे सकते हो ? इस स्थिति में अगर तुम मरणदान नहीं दोगे तो क्या यह तुम्हारी मेरे प्रति कठोरता नहीं होगी। अब प्रश्न यह है कि इस स्थिति में उस चिकित्सक का क्या कर्तव्य है ? क्या वह उस व्यक्ति को मरणदान देकर उसे उसके कष्टों से मुक्त कर दे या उसे यूं ही कष्ट सहन करने के लिए छोड़ दे। ऐसे प्रश्न को लेकर मेरी तो यही धारणा है कि चिकित्सक को उस समय उस मरीज को मरणदान देना चाहिए, क्योंकि यह विदित हो चुका है कि वह (मरीज) मरनेवाला है। उसका रोग ठीक नहीं होनेवाला है। अत: अहिंसा को ध्यान में रखकर उसे मरणदान देना चाहिए, क्योंकि कहा भी गया है कि बार-बार की हिंसा की अपेक्षा एक बार की हिंसा अधिक ठीक होती है। मरीज को वेदना से पीड़ित कष्टों के कारण हर समय कराहते रहने से चिकित्सक प्रतिक्षण हिंसा ही करता है । अत: वह उसे मरणदान देकर प्रतिक्षण होनेवाली हिंसा को रोक सकता है। एक बार महात्मा गाँधी ने किसी रोग से पीड़ित असह्य वेदना से ग्रस्त बछड़े को मृत्युदान दिया। उनके इस कृत्य पर काफी विवाद भी हुआ था। इसके सम्बन्ध में जब उनसे पूछा गया कि आपने ऐसा क्यों किया ? प्रत्युत्तर में उन्होंने कहा कि पालतू जानवर हमारा प्रेम समझ सकता है। वह हमसे प्रेम करता भी है। लेकिन न तो वह अपनी परिस्थिति पूरी तरह समझ सकता है और न विचारपूर्वक अपना अभिप्राय व्यक्त कर सकता है। जिस तरह छोटे बच्चे किसी चीज को नहीं समझते हैं और उसके बारे में उनके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002112
Book TitleSamadhimaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajjan Kumar
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2001
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Epistemology
File Size10 MB
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