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पंचम अध्याय
जैनधर्म में समाधिमरण की परम्परा
जैनधर्म में समाधिमरण की परम्परा प्राचीन काल से चली आ रही है। समाधिमरण की घटनाओं का उल्लेख कतिपय प्राचीन जैन ग्रन्थों में तो मिलता ही है, साथ ही इस सम्बन्ध में अनेक अभिलेख या शिलालेख भी प्राप्त होते हैं। किसी तथ्य की ऐतिहासिकता की पुष्टि के लिए शिलालेखों का स्थान अद्वितीय है। शिलालेखों में उत्कीर्णित वाक्यों को सन्देहात्मक दृष्टि से नहीं देखा जा सकता, जबकि साहित्यिक साक्ष्यों पर सन्देह किया जा सकता है, क्योंकि साहित्यिक साक्ष्यों में परिवर्तन या परिवर्द्धन की अधिक सम्भावना रहती है। इसी तथ्य को दृष्टिगत करते हुए समाधिमरण की ऐतिहासिकता की पुष्टि के लिए हमने शिलालेखों में वर्णित समाधिमरण के उदाहरणों को यथासम्भव संकलित करने का प्रयास किया है।
कालक्रम के आधार पर इन शिलालेखों के समय का भी वर्गीकरण किया गया है। सामान्यतया काल विभाजन एक समस्या ही है, फिर भी विद्वानों ने लगभग सातवीं शती तक और उससे पूर्व का काल प्राचीन काल एवं ८वीं शती से १६ वीं शती तक का समय मध्यकाल माना है। इसके बाद का काल आधुनिक काल कहलाता है। कालक्रम के इसी वर्गीकरण के आधार पर समाधिमरण की परम्परा का उल्लेख किया गया है। प्राचीन काल
तमिलनाडु एवं कर्णाटक के पहाड़ों की गुफाओं में ब्राह्मी लिपि में कुछ व्यक्तियों के नाम मिलते हैं। विद्वानों का विचार है कि ये नाम इन गुफाओं में समाधिमरण करने वाले व्यक्तियों के होने चाहिए। इनका काल ई० पू० से लेकर ईसा की प्रथम-द्वितीय शताब्दी का माना जाता है। श्रवण बेलगोल के चन्द्रगिरि पर्वत पर प्राप्त शिलालेख में महावीर से भद्रबाहु तक की आचार्य परम्परा का वर्णन करते हुए भद्रबाहु के शिष्य प्रभाचन्द्र के द्वारा इस स्थान पर समधिमरण लेने का उल्लेख है। यद्यपि यह शिलालेख शक संवत् ५२२ का माना जाता है। इस शिलालेख में उल्लिखित प्रभाचन्द्र को विद्वानों ने चन्द्रगप्त मौर्य कहा है। यद्यपि यह प्रश्न विवादास्पद है, किन्तु इतना निश्चित है कि
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