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तृतीय अध्यीय
नैतिकता की मौलिक समस्याएँ और आचाराङ्ग
(a) सापेक्ष और निरपेक्ष नैतिकता :
आचार-दर्शन के क्षेत्र में सदा से नीति के सापेक्ष और निरपेक्ष स्वरूप को लेकर पर्याप्त चिन्तन होता रहा है । सापेक्षवादी आचारदर्शन मानता है कि आचार के नियमोपनियम देश, काल, परिस्थिति और व्यक्ति के आधार पर बदलते रहते हैं । वे अपवाद -युक्त भी होते हैं। आधुनिक युग में समाज वैज्ञानिक सापेक्षवाद, मनोवैज्ञानिक सापेक्षवाद, अर्थवैज्ञानिक सापेक्षवाद आदि विचारधाराएँ सापेक्षनैतिकता को स्वीकार करती हैं । उनके अनुसार नैतिक नियम सार्वकालिक और सार्वलौकिक नहीं होते हैं । एक ही प्रकार का आचरण एक परिस्थिति में उचित हो सकता है, वही आचरण परिस्थिति बदलने पर अनुचित भी हो सकता है । इसके विपरीत निरपेक्षवादी विचारधारा के अनुसार नैतिक आचरण निरपवाद होता है । देश, काल, परिस्थिति और व्यक्ति के बदलने पर भी मूल्यवत्ता अपरिवर्तनीय ही रहती है । जो आचरण शुभ है, वह सदैव ही शुभ होगा और जो अशुभ है, वह सदैव अशुभ ही रहेगा, किसी भी परिस्थिति में शुभ, अशुभ नहीं हो सकता और अशुभ, शुभ नहीं हो सकता ।
इस सन्दर्भ में विचार करने पर आचाराङ्ग में नीति के निरपेक्ष और सापेक्ष दोनों पक्ष प्राप्त होते हैं । यहाँ पर सर्वप्रथम सापेक्ष नैतिकता के सन्दर्भ में विचार करना समुचित होगा ।
नीति की सापेक्षता का प्रश्न और आचाराङ्गः
अनुभव प्रायः यह है कि एक ही कार्यं कभी कर्तव्य रूप में विहित होता है और कभी अविहित होता है। एक ही आचरण एक परिस्थिति में सत् होता है और दूसरी परिस्थिति में असत् । एक व्यक्ति के लिए जो कर्म शुभ होता है, वही दूसरे के लिए अशुभ भी हो सकता है । आचाराङ्ग में 'कहा है कि जो आस्रव अर्थात् कर्म - बन्धन के स्थान हैं वे हो परिस्रव अर्थात् कर्म - निर्जरा के स्थान बन जाते हैं ।" इसका तात्पर्य यह है कि किसी कार्य की नैतिक मूल्यवत्ता उन परिस्थियों पर निर्भर करती है, जिनमें वह कर्म किया गया है । जो कर्म आस्रव अर्थात् बन्धन के निमित्त
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