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२८४ : आचाराङ्ग का नोतिशास्त्रीय अध्ययन आन्तरिक पक्ष अर्थात् प्रेरक का सम्बन्ध नैतिकता से जोड़ा तो कुछ ने बाह्य पक्ष अर्थात् कर्म परिणाम का। इस सन्दर्भ में आचारांग मूलतः कर्ता की अन्तःवृत्ति के आधार पर ही नैतिकता को परिभाषित करता है। वह स्पष्ट रूप से कहता है कि कर्म की नैतिकता कर्ता के अध्यवसाय पर आधारित है । यद्यपि इसका अर्थ यह नहीं है कि आचारांग नैतिकता के बाह्य पक्ष या व्यवहार पक्ष की अवहेलना करता है । नैतिकता के सम्बन्ध में एक तीसरा प्रश्न वैयक्तिक नैतिकता और सामाजिक नैतिकता को लेकर है। कुछ विचारकों ने आत्महित पर बल दिया है तो कुछ ने लोकहित को प्रधानता दी है। ___ इस सम्बन्ध में आचारांग का दृष्टिकोण बहुत स्पष्ट है । वह आत्महित या आत्म कल्याण को प्राथमिकता देता है। उसका कथन है कि प्रथम व्यक्ति स्वयं नैतिक बने । यद्यपि उसका आत्म-कल्याण लोक कल्याण का विरोधी नहीं है। इस सम्बन्ध में वह स्पष्ट रूप से यह घोषित करता है कि मुनियों का यह दायित्व है कि वे समाज में नैतिक चेतना जागृत करें ताकि जन-जन के हृदय में अभय का संचार हो सके। आचारांग का मन्तव्य इतना ही है कि व्यक्ति पहले नैतिक चरित्र को उज्ज्वल बनाए और उसके पश्चात् लोक कल्याण में प्रवृत्त हो। लोक मंगल की साधना आवश्यक तो है किन्तु उसे वैयक्तिक आचरण की पवित्रता पर खड़ा होना चाहिये । आचारांग के अनुसार एक सदाचारी साधक ही एक सच्चे लोक मंगल का स्रष्टा हो सकता है। ___ जहाँ तक नैतिक मानदण्डों का प्रश्न है पाश्चात्य नीति दर्शन में नैतिक मानदण्डों को लेकर विस्तार से चर्चा हुई है। जबकि भारत में यह प्रश्न मूलतः अचचित ही रहा है। पश्चिम में नैतिक साध्य के रूप में सुख, विवेक और आत्मपूर्णता के मानदण्ड स्वीकृत किये जाते रहे हैं। इस सन्दर्भ में आचारांग में बहुत स्पष्ट कोई निर्देश उपलब्ध नहीं है। यद्यपि आचारांग में दुःख निवृत्तिरूप एवं अभयजनित सुख को अवश्य ही नैतिक साधना का लक्ष्य माना गया है। किसी सीमा तक यह साधन के रूप में विवेक और प्रज्ञा को भी स्थान देता है तथापि आचारांग की नैतिक साधना का अन्तिम लक्ष्य तो आत्मपूर्णता ही है। आत्मपूर्णता अथवा आत्म साक्षात्कार को आचारांग का नैतिक साध्य स्वीकार किया जा सकता है। फिर भी हमें यह स्मरण रखना चाहिये कि आचारांग जिस आत्मपूर्णता की बात करता है वह पाश्चात्य विचारकों की आत्मपूर्णता की अवधारणा से भिन्न है। आचारांग का
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