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श्रमणाचार : २७१ करने से शारीरिक दुर्बलता का अनुभव करता है तब उसके मन में समाधिमरण की भावना उत्पन्न होती है और वह उस समय आहार और कषाय को कृश करता हुआ अथवा क्रमशः संलेखना करता हुआ उपर्युक्त किसी भी प्रामादि में प्रवेश कर सूखे तृण-पलाल आदि की याचना करे, और उसे प्राप्त कर गांव या गांव आदि के बाहर एकान्त निरवद्य, निर्दोष एवं निर्जीव स्थान पर जाये। उस स्थान को भलीभांति देखकर, उसका प्रमार्जन कर वहाँ तृण-शय्या बिछाए । तृण-शय्या बिछाकर उस पर स्थित हो उस समय इत्वरिक अनशन स्वीकार करे अर्थात् शारीरिक कियाए करने में समर्थ भिक्ष जीवन-पर्यन्त नियमतः चतुर्विध आहार के परित्याग के साथ ही मर्यादित स्थान में शारीरिक क्रियाए करने का संकल्प कर ले ।२५४ इत्वरिक अनशन का अधिकारी :
इत्वरिक अनशन की श्रेष्ठता एवं उसे स्वीकार करने वाले साधक की योग्यता को प्रतिपादित करते हुए सूत्रकार का स्पष्ट कथन है
पग्ग हिय तरगं चेयं, दवियस्स विजाणतो। अयं से अवरे धम्मे णायपुत्तण साहिए ।
(आचारांग-१८८) भगवान महावीर ने इत्वरिक अनशन का आचार धर्म भक्त-प्रत्याख्यान से भिन्न प्रतिपादित किया है और यह इत्वरिक अनशन प्रथम (भक्त-प्रत्याख्यान ) की अपेक्षा उच्चतर या श्रेष्ठतर है। इसे ज्ञानी, द्रविक ( विशिष्ट ज्ञानी ओर संयमी ) ही स्वीकार कर सकते हैं।२५५ आवश्यक निर्देश :
(१) इस अनशन को स्वीकार करने वाला भिक्षु हरियाली या वनस्पति पर शयन न करे अपितु निर्जीव एवं निर्दोष भूमि पर शय्या बिछाए।
(२) वह अणाहारी भिक्षु बाह्याभ्यन्तर उपधि का त्याग कर विचरण करे तथा परीषहों के होने पर उन्हें सहन करे।
(३) वह अनाहारी भिक्षु इन्द्रिय ग्लान (श्रान्त ) हो परिमित मात्रा-सहित भूमि में हाथ पैर आदि का संकोच-प्रसार करे अथवा समता धारण करे।
(४) अनशन में स्थित मुनि बैठकर या लेटे हुए श्रान्त हो जाए तब वह शरीर-संथारण या शरीर की समाधि के लिए अभिक्रमण और प्रति
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