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श्रमणाचार : २६५
कारण दुर्बल हो गया हूँ, मैं भिक्षा के निमित्त विभिन्न घरों में जाने में समर्थ नहीं हो रहा हूँ अर्थात् संयम निर्वाह करने में अक्षम हो चुका हूँ अथवा 'नस्सणं भिक्खुस्स एवं भवति-से गिलम्मि च खलु अहं इमंसि समये इमं सरीरगं अणुपुव्वेण परिवहित्तए',२३६ जब उसे ऐसा लगे कि मैं सचमुच इस समय ग्लान (शरीर से अशक्त, दुर्बल, रोगाक्रान्त एवं समयोचित आवश्यक क्रिया करने में) हो रहा हूँ और इस अत्यन्त ग्लान शरीर को वहन करने में असमर्थ हो रहा हूँ' ऐसी स्थिति में वह ग्लान भिक्षु संलेखना व्रत धारण करता है। संलेखना-विधि (आकस्मिक और क्रमप्राप्त ) : ___आचारांग में संलेखना की विधि के मुख्य रूप से तीन अंग बताए गये हैं-(१) आहार का अल्पीकरण (२) कषाय का कृशीकरण और (३) शरीर का स्थिरीकरण। यद्यपि काल की अपेक्षा से संलेखना (समाधिमरण) विधि की उत्कृष्ट अवधि बारह वर्ष की बतलाई गई है, किन्तु यहाँ वह विवक्षित नहीं है क्योंकि ग्लान की शारीरिक स्थिति उतने समय तक टिके रहने की नहीं होती । अतः ग्लान भिक्षु को अपनी शारीरिक स्थिति व क्षमता को ध्यान में रखकर तदनुरूप योग्यतानुसार (त्रिविध समाधिमरण में से) किसी एक का चयन कर संलेखना की आराधना शुरू कर देनी चाहिए। आचारांग में इस विधि क्रम को स्पष्ट करते हुए कहा है कि अपनी शारीरिक असमर्थता को देखते हुए वह भिक्षु क्रमशः आहार का संवर्तन (संक्षेप) करे। आहार को संक्षेप करते हुए क्रमशः कषायों का संवर्तन (कृश) करे। कषायों को कुश या मन्द करके समाधि-युक्त लेश्या (परिणाम) वाला बने तथा फलक की भांति शरीर और कषाय-दोनों ओर से कृश बना हुआ वह ग्लान भिक्षु संलेखना (समाधिमरण) के लिए उत्थित होकर शरीर को स्थिर-शान्त करे।२३७
इसी तरह, भक्त-प्रत्याख्यान आदि किसी एक अनशन को पूर्णतः सफल बनाने के लिए किसी एक अनशन का पूर्ण संकल्प ग्रहण करने के पहले साधक को मुख्य रूप से निम्नोक्त क्रम को अपनाना आवश्यक है या क्रमिक साधना आवश्यक है। आचारांग में संलेखना की अनुक्रमिक साधना की ओर संकेत करते हुए कहा है
अणपूव्वेण विमोहाइं जाइंधीरा समासज्ज। वसुमंतो मतिमंता सव्वं णच्चा अणेलिसं ॥२३८
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