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श्रमणाचार : २५५
तप भी कहते हैं । भिक्षु या साधक को जब यह प्रतीत होने लगे कि उसका शरीर रोगग्रस्त या क्षीणकाय हो गया है, इसके द्वारा कोई विशेष उपलब्धि नहीं हो रही है, तब वह आहार का त्याग कर दे और समाधिमरण द्वारा मृत्यु का वरण कर ले । एतद्-विषयक विशेष विवेचना समाधिमरण अनशन १९० के सन्दर्भ में की जाएगी अतः यहां गहराई में जाना अपेक्षित नहीं है ।
अवमौदर्य ( ऊणोदरी ) :
इस तप के नाम से ही इसका अर्थ स्पष्ट होता है - भूख से कम खाना । जिस व्यक्ति की जितनी आहार की मात्रा है उससे अल्प आहार करना ऊणोदरी या अवमौदर्यं तप कहलाता है । सूत्रकार स्पष्ट रूप से निर्देश देता है कि 'अवि अमोयरियं कुज्जा' १९१ मुनि अवमोदर्यं तप ( कम खाना ) करे । मुख्य रूप से अवमौदर्य के तीन भेद माने गए 第一
(१) उपकरण अवमौदर्य ( वस्त्र पात्र करना ), ( २ ) भक्त - पान अवमौदर्यं ( आहार -पानी करना ) ( ३ ) और भाव अवमोदर्यं ( कषायों को कम करना ) )।
आचारांग में 'जे अचेले परिवुसिए संचिक्खति अमोरिया ए १९२ अर्थात् जो मुनि निर्वस्त्र रहता है वह अवमौदर्य तप का अनुशीलन करता है, कहकर उपकरण अवमोदर्य तप का समर्थन किया है । तथा
'कसाए पयणुकिच्च अप्पाहारो तितिक्खए १९3 अथवा ' आहारं संवट्टेज्जा, आणुपुव्वेणं आहारं संवट्टेत्ता कसाय पयणुए किच्च १९४ के द्वारा भाव अवमौदर्य एवं आहार अवमौदर्यं तप को स्पष्ट किया गया है ।
भिक्षाचरी या वृत्ति परिसंख्यान तप :
भिक्षा प्राप्ति के लिए मन में विविध प्रकार के अभिग्रहों (संकल्पों) को धारण करना वृत्ति परिसंख्यान तप है । इसे भिक्षाचरी तप भी कहा गया है यथा- 'एक, दो, तीन या चार घर से ही भिक्षा लूंगा' अथवा 'अमुक प्रकार से दिए जाने वाले आहार- पानी की याचना करूंगा और निर्दोष मिल जाने पर उसे ग्रहण करूंगा' इत्यादि भिक्षा के विभिन्न नियमों का पालन करते हुए अभिग्रहों से युक्त जो मुनि भिक्षा ग्रहण करता है उसके वृत्तिपरिसंख्यान या भिक्षाचरी नामक तप होता है । आचारांग में भिक्षाचरी तप के प्रसंग में प्रतिज्ञापूर्वक सात पिण्डेषणा और सात पानैषणाओं की चर्चा की गयी है । इसी तरह
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