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२३८ : आचाराङ्ग का नीतिशास्त्रीय अध्ययन संस्तारक विषयक चार अभिग्रह :
भिक्षु-भिक्षुणी को उद्देश्य, प्रेक्ष्य, तस्यैव और यथासंस्तृत इन चार प्रतिमाओं पूर्वक निर्दोष संस्तारक की गवेषणा करनी चाहिए ।
(१) तृण, दूब, पलाल आदि किसी एक का नाम निश्चित करना, याचना करना अथवा बिना याचना किए ही गृहस्थ दे तो निर्दोष जानकर ग्रहण करना प्रथम प्रतिज्ञा है ।
(२) गृहस्थ के घर में रखे हुए संस्तारक को देखकर उसकी याचना करना दूसरी प्रतिज्ञा है। _ (३) मुनि जिस उपाश्रय में ठहरना चाहे यदि उसी में तृण, पलाल आदि से बना हुआ संस्तारक विद्यमान हो तो मुनि उसे स्वीकार कर सकता है । यदि वैसा संस्तारक वहाँ न मिले तो उत्कटुक पद्मासन आसन, आदि आसनों द्वारा रात्रि व्यतीत करे, यह तृतीय प्रतिमा है ।
(४) मुनि जिस उपाश्रय में रहे पृथ्वी-शिला, लकड़ी का तख्ता अथवा तृणादि पहले से ही बिछा हुआ हो तो मुनि उस पर शयन-आसन कर सकता है अन्यथा पूर्वोक्त आसनों द्वारा रात्रि बिताए। इस प्रकार उक्त चार अभिग्रहधारी मुनि अन्य प्रतिमाधारी भिक्षु की अवहेलना न करे । १४४ संस्तारक लौटाने की विधि : ___ गृहस्थ को लौटाते समय संस्तारक जीव-जन्तुओं से युक्त नहीं होना चाहिए । जीव जन्तुओं से युक्त संस्तारक को प्रतिलेखना एवं प्रमार्जन कर सूर्य की आतापना दे। तदनन्तर यतनापूर्वक साफ कर गृहस्थ को लोटाना चाहिए । १४५ उपाश्रय में निवास करने के पूर्व की विधि : __ श्रमण-श्रमणी उपाश्रय में स्थिरवास रहे, मासकल्प एवं चातुर्मास रहे अथवा प्रामानुग्राम विहार करते हुए आकर ठहरे । किन्तु वहाँ ठहरने के पूर्व दिन में मल-मूत्रादि त्याग करने की भूमि को भलीभाँति देख ले। बिना देखी हुई भूमि में जाने से वह फिसल सकता है और गिरने से हाथपैर आदि में चोट आ सकती है तथा वहाँ स्थित अन्य जीव-जन्तुओं का भी घात होगा ।१४६ संस्तारक बिछाने की विधि :
साधु, आचार्य, उपाध्याय, गणावच्छेदक, नवीन दीक्षित तथा आगन्तुक अतिथि भिक्षुओं के द्वारा स्वीकार की गई शयन भूमि को छोड़
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