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श्रमणाचार : २३३
इसी तरह साधु के निमित्त दरवाजे छोटे-बड़े किये गये हों, कन्दमूल, पत्र- पुष्प, फल, बीज, हरी वनस्पति आदि को काट-छाँटकर स्थान को साफ किया गया हो, तथा उपाश्रय में रखे हुये चौकी, फलक आदि वस्तुओं को बाहर से भीतर और भीतर से बाहर रखा गया हो तो मुनि उस आश्रय को तब तक काम में नहीं ले जब तक कि वह स्थान किसी दूसरे के द्वारा उपयोग में नहीं ले लिया जाय । ११८
कैसी शय्या में ठहरना वर्जित :
एक स्तम्भ पर, मंच पर, माले पर किसी ऊँचे स्थान पर बने हुये उपाश्रय में साधु को नहीं ठहरना चाहिये किन्नु वहाँ यदि गिरने का भय न हो, पहुँचने का मार्ग सुगम हो तो ठहर सकता है ।
ऊँचे स्थान पर स्थित स्थान में क्या न करे :
वहाँ जल से हाथ-पैर, आँख, दाँत, मुख आदि एक बार या बार-बार न धोए । मल-मूत्रादि का विसर्जन न करे । मुख एवं नाक का मैल, वमन, पित्त, घाव, रुधिर आदि गन्दगी का वहाँ त्याग न करे | क्योंकि यह कर्मबन्ध का हेतु है । वहाँ मलमूत्रादि का विसर्जन करने पर हाथ पैरादि धोने पर फिसलने की सम्भावना है । फिसलने से शरीर में चोट आ सकती है। साथ ही, अन्य जीवों का घात भी हो सकता है अतएव मुनि को उक्त प्रकार के उपाश्रय में ठहरना निषिद्ध है | ११९ कैसा उपाय निषिद्ध :
(१) स्त्री, बालक, पशु तथा उनके खाद्यान्न पदार्थों से युक्त उपाश्रय या मकान में न ठहरे क्योंकि कुटुम्बवान मकान में ठहरने पर यदि कभी साधु अस्वस्थ ( शरीर का स्तम्भन, सृजन, विसूचिका, वमन, ज्वर आदि ) हो गया तो वह गृहस्थ करुणा भाव से प्रेरित होकर उसे व्याधिमुक्त करने के लिये घी तेल, नवनीत, वसा आदि सावद्य या निरवद्य औषधियों से उसके शरीर को मलेगा, प्रासुक शीतल या उष्ण जल से स्नान करायेगा, चूर्णादि से मालिश करेगा तथा शरीर की स्निग्धता को उबटन आदि से दूर करेगा, अग्नि प्रज्ज्वलित कर उसके शरीर को तपाएगा । यदि वह प्रतिकार नहीं करेगा तो उसकी संयम साधना में दोष लग सकता है तथा स्त्री आदि के परिचय में रहने से ब्रह्मचर्य व्रत में शिथिलता आयेगी । इसी तरह और भी अनेक दोषोत्पत्ति की सम्भावना से साधु को सपरिवार गृहस्थ के मकान या गृहस्थों से युक्त उपाश्रय
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