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२३० : आचाराङ्ग का नीतिशास्त्रीय अध्ययन
ठंडे या गरम जल से धोकर देने पर भी नहीं लेना चाहिए । कन्द-मूल या अन्य कोई भी वनस्पति जिस वस्त्र में बँधी हुई हो वह वस्त्र भी अग्राह्य है । वस्त्र विषयक सारी विधि पिण्डेषणा के समान ही समझना चाहिये
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वस्त्र की निर्दोषता :
जो वस्त्र अण्डे, मकड़ी के जाले तथा जीव-जन्तुओं से मजबूत हो, धारण करने योग्य हो, गृहस्थ देना चाहता हो, को भी अनुकूल प्रतीत हो तो साधु निर्दोष समझ कर उसे सकता है | १०८
वस्त्र ग्रहण विधि :
गृहस्वामी द्वारा वस्त्र प्रदान करने पर मुनि उसे चारों ओर से प्रतिलेखना कर ग्रहण करे, क्योंकि प्रतिलेखना किये बिना वस्त्र ग्रहण करना कर्मबन्ध का हेतु हो सकता है । वस्त्र के अन्त में या किसी कोने में कुण्डल, धागा, चाँदी-सोना, रत्नादि या बोज, हरी वनस्पति आदि बँधी हुई हो अर्थात् कोई भी सजीव या निर्जीव वस्तु रखी हुई न हो, इसलिये मुनि वस्त्र को पहले चारों ओर से अवलोकन करके ही ग्रहण करे । १०९
रहित हो, और साधु ग्रहण कर
वस्त्र कैसे धारण किया जाय :
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साधु-साध्वी निर्दोष वस्त्र मिलने पर उन्हें उसी रूप में धारण करे परन्तु विभूषा के लिए उन्हें न धोए, न रंगे और न धुले हुए एवं रंगे हुये वस्त्र पहने । उन स्वल्प और असार वस्त्रों को पहन कर ग्रामादि में जाते समय छिपाकर न चले । यही सवस्त्र मुनि का आचार है । यही बात प्रथम श्रुतस्कन्ध के आठवें अध्ययन में भी कही गई है । १११ मुझे अन्य वस्त्र मिल जायगा इस भावना से मुनि धारण किये हुये वस्त्र को वर्णयुक्त या विवर्णं न करे, न फाड़े, न फेंके, न किसी अन्य साधु-साध्वी को दे और न उनसे अदला-बदली करे । ११२
वस्त्र कहाँ नहीं सुखाये :
जो स्थान गीला हो, बीज, हरियाली और जीवजन्तु से युक्त हो तथा घर के दरवाजे पर, दीवार पर, स्नान पीठ पर, नदी के तट पर, मंच पर, ऊँचे-नीचे विषम स्थानों पर, जो अच्छी तरह बँधा हुआ नहीं है, निश्चल नहीं है, वहाँ मुनि वस्त्र न सुखाने अपितु एकान्त स्थान में जाकर निर्दोष भूमि में सुखावे । ११३
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