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श्रमणाचार : २२७
उसके हाथ से भोजन ग्रहण करना तथा इसी प्रकार पानी ग्रहण करना पाँचवीं पिण्डषणा और पानैषणा है।
(६) गृहस्थ ने अपने लिए या किसी अन्य के लिए बर्तन में से भोजन निकाल कर पात्र या हाथ में रखा है। अभी उसमें से किसी ने खाया नहीं है । ऐसे आहार और पानी को प्रासुक जानकर ग्रहण करने की प्रतिमा ( प्रतिज्ञा ) करना छठी पिण्डैषणा और पानैषणा है।
(७) जिस आहार-पानी को शाक्यादि भिक्षु, ब्राह्मण, अतिथि आदि नहीं चाहते हों, ऐसे उज्झित धर्म वाले आहार को ग्रहण करने की प्रतिमा (प्रतिज्ञा ) करना सातवीं पिण्डैषणा और पानैषणा है ।१४ उक्त प्रतिमाघारी मनिका अन्य के साथ बर्ताव :
साधक का उद्देश्य आत्म-शुद्धि है। दूसरे के द्वारा की गयी निन्दा या अवज्ञा के ऊपर उठकर प्रत्येक क्रिया करनी चाहिए । इसी से आध्यात्मिक विकास सम्भव है । यदि कोई मुनि संकल्प या अभिग्रह धारण नहीं करता है तो उसे हीन दृष्टि से देखना, अपने से निम्न कोटि का मानना या उससे घृणा द्वेष करना अपने मुनित्व से पतित होना है। इसीलिए यह निर्देश है कि सातों ( प्रतिज्ञा ) प्रतिमा या उनमें से किसी एक-दो प्रतिमाओं (प्रतिज्ञाओं) को धारण करने वाले मुनि को अपनी प्रतिज्ञाओं (प्रतिमाओं ) का अभिमान नहीं करना चाहिए और न दूसरे को निम्न ही समझना चाहिए। वह यही कहे कि ये मनिराज भी प्रतिमाधारी जिनाज्ञा में तत्पर तथा समाधिपूर्वक विचरण करते हैं । इस प्रकार निरहंकार होना ही साधु की साधुता का समग्र आचार है ।१५ आहार-पानी में समभाव वृत्ति :
श्रमण-श्रमणी को सरस और स्वादिष्ट आहार खाकर शेष रूक्ष आहार को बाहर नहीं फेंकना चाहिए। यदि वह ऐसा करता है तो माया का सेवन करता है । अतएव उसे यथासमय सुगन्धित या दुर्गन्धित जैसा भी आहार प्राप्त हो समभावपूर्वक बिना स्वाद लिए खा लेना चाहिए । उसमें से किंचित् मात्र भी फेंकना नहीं चाहिए। यही बात पानी के सम्बन्ध में है। ___ आचारांग के प्रथम श्रुतस्कंध में 'सुब्भि अदुवा दुब्भि' कहकर इसी बात की पुष्टि की गई है।९७
निष्कर्ष यह है कि आत्मा से परमात्म-दशा को प्राप्त करने के साधनभूत शरीर को सक्षम बनाये रखने के लिए आहार को शुद्ध एवं
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