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आचाराङ्गसूत्र स्वरूप एवं विषयवस्तु : ११ भावशस्त्र । हिंसा के बाह्य साधन द्रव्यशस्त्र कहलाते हैं। राग-द्वेष आदि से कलुषित परिणाम ( विचार ) भावशस्त्र हैं। इस प्रकार हिंसा के बाह्य और आन्तरिक साधनों के स्वरूप का सम्यक् बोध ही शस्त्रपरिज्ञा अध्ययन का विषय है । ___ इस अध्ययन में सात उद्देशक हैं। प्रथम उद्देशक आत्म-अस्तित्व की जिज्ञासा से प्रारम्भ होता है। इसमें आत्मा, कर्म पुनर्जन्म आदि का सामान्य परिचय है । इसके बाद हिंसा-अहिंसा का निरूपण तथा हिंसा के विभिन्न कारणों का प्रतिपादन है। शेष उद्देशकों में क्रमशः पृथ्वी, जल आदि अव्यक्त चेतना वाले षटकायिक जीवों की हिंसा एवं उनको चेतनता की विवेचना को गयी है। इसके साथ हो उसमें हिसाजन्य आत्म-परिताप, कर्म-बन्ध का विवेचन तथा उससे विरत होने का उपदेश है। संक्षेप में, प्रथम अध्ययन में हिंसा-अहिंसा के विवेक का विवेचन है। द्वितीय अध्ययन ( लोकविजय):
इस अध्ययन का नाम लोक-विजय है। इसमें संसार ( बन्धन) पर विजय प्राप्त करने के साधनों का वर्णन है । आचाराङ्ग की टीकाओं के अनुसार यह संसार ( बन्धन) द्रव्य और भाव दो प्रकार का हैभाव-संसार अर्थात् विषय-कषाय या राग-द्वेष और द्रव्य संसार अर्थात् शब्द, रूप, रस, स्पर्श आदि इन्द्रिय-विषय। भावसंसार ही (विषयभोग) द्रव्य संसार का कारण है। विषय भोग का कारण राग-द्वेष आदि मनोभाव हैं । अतः कषाय-लोक या भाव लोक पर विजय पा लेने पर साधक स्वतः द्रव्य लोक (विषय-भोगों) पर विजय पा लेता है।
इस अध्ययन में संसार के स्वरूप का सम्यक विवेचन हुआ है। इसमें देह की असारता, अशरणता तथा विषयों की अनित्यता का बोध भी कराया गया है। साथ हो आसक्ति के बन्धन को तोड़ने का उपाय बताते हुए संयम में पुरुषार्थ करने को प्रेरणा दी गई है । इस अध्ययन में विषय-कषायादि अन्तरंग शत्रुओं पर विजय प्राप्त करने के लिए स्थानस्थान पर अप्रमत्त ( जागरूक ) रहने का सन्देश है । इस अध्ययन में छः उद्देशक हैं। प्रथम उद्देशक में संसार के मूल स्रोत शब्दादि विषयों के प्रति अनासक्त रहने का उपदेश है । द्वितीय उद्देशक में संयम मार्ग पर दृढ़ रहने का निर्देश है। तृतीय उद्देशक में जातिगत मिथ्या अलंकार के त्याग का निरूपण है। चतुर्थ उद्देशक में कहा गया है कि साधक
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