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श्रमणाचार : २०५
(१) पंचमहाव्रत ( पाँच नैतिक नियम ) एवं उनकी भावनाएँ (२) पाँच समितियाँ (३) त्रिगुप्ति
(४) बारह अनुप्रेक्षाएँ ( भावनाएँ )
(५) दसविध यति धर्म ( दस नैतिक सद्गुण )
(६) अवग्रह याचना ( आज्ञा माँगने से सम्बन्धी ) आचार (७) इन्द्रिय नय या निग्रह
(८) पर क्रिया और अन्योन्य क्रिया सम्बन्धी आचार (९) चातुर्मास एवं मासकल्प ।
विशेष श्रमणाचार :
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जो श्रमण श्रमणी विशेष प्रसंगों पर अपने पूर्व संचित कर्मों की विशेष रूप से निर्जरा करने के लिए जिन आचार नियमों या साधनाओं का कड़ाई से पालन करते हैं, उन नियमों आदि को विशेष श्रमणाचार कहा जाता है यथा - कठोरतम तप, ध्यान, समाधि की साधना कष्टों को सहे बिना सम्भव नहीं है और घोर परीषहों पर विजय पाना सामान्य साधक के बलबूते की बात नहीं है अतः इसे विशेष श्रमणाचार कहा गया है । इसी तरह विशेष अवसरों पर विविध प्रकार के अभिग्रहों के साथ तप का सेवन करना भी विशेष साध्वाचार है । इसकी स्पष्ट झांकी हमें आचारांग के प्रथम श्रुतस्कंध के नवें अध्ययन में दृष्टिगोचर होती है । साधना को पूर्णतः सफल बनाने हेतु समाधिमरण ( अनशन ) रूप आचरण का पालन करना भी श्रमण की एक विशिष्ट चर्या है | इसके अन्तर्गत मुख्य रूप से तीन बातों पर विचार किया जागगा - (१) तप ( २ ) परीषह और (३) समाधि ।
पांच महाव्रत और उनकी पच्चीस भावनायें :
व्रत ( नियम ) - श्रमणत्व की साधना में व्रत का अत्यधिक महत्त्व है । 'व्रत' त्याग का प्रतीक है, संयम का द्योतक है । जो मर्यादाएँ शाश्वत एवं सार्वभौम हैं और जिनसे स्व-पर का कल्याण होता है, वे व्रत या नियम कहे जाते हैं । सामान्यतया, व्रत-विहीन व्यक्ति की शक्तियाँ बिखर जाती हैं । अतः जीवन शक्ति को केन्द्रित तथा उचित दिशा में उपयोग करने के लिए व्रतों की महती आवश्यकता है ।
आचार के आधारभूत स्तम्भ :
प्रायः प्रत्येक मनुष्य के जीवन में अनेक छोटे-बड़े दोष रहते हैं किन्तु
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