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१९० : आचाराङ्ग का नोतिशास्त्रीय अध्ययन आचारांग में अहिंसा को ही महत्त्व दिया गया है, शेष सत्य, अस्तेय आदि दूसरे महावतों की उपेक्षा की गई है।
जिस प्रकार असत्य, स्तेय आदि हिंसा के पोषक तत्व हैं उसी प्रकार सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह अहिंसा के पोषक तत्त्व हैं । सत्य और अहिंसा में घनिष्ठ सम्बन्ध है। आचारांग में सत्य महाव्रत को परिभाषा देते हुए कहा गया है कि क्रोध, लोभ, भय एवं हास्य आदि असत्य बोलने के कारणों के मौजद रहने पर भी मन, वचन और काया से असत्य नहीं सोचना, असत्य नहीं बोलना और असत्य आचरण न करना ही सत्य महावत है । १०
पूर्ण रूप से इस सत्य महाव्रत की रक्षा के लिए जिन विशेष पांच बातों का त्याग आवश्यक बतलाया गया है, उन्हें पाँच भावना कहा गया है। वे पाँच भावनाएँ (१) विवेक-विचारपूर्वक बोलना (२) क्रोध का परित्याग (३) लोभ का परित्याग (४) भय का परित्याग और (५) हास्य का परित्याग । व्यक्ति क्रोध, लोभ, भय आदि के वश पापकारिणी, पाप का अनुमोदन करने वाली, दूसरे के मन को पीड़ा पहुँचाने वाली असत्य भाषा बोलता है। अतः प्रज्ञावान् साधु को क्रोध, लोभ, भयादि इन चारों का सर्वथा परित्याग कर देना चाहिए। ये हिंसा के समान ही असत्य-वचन के भी कारण हैं। प्रयोजन होने पर भी साधु को सदा हितमित एवं सत्य बोलना चाहिए।११ इस तरह सत्यमहावत के मूल में भी अहिसा की भावना ही निहित है । ___ आचारांग में कहा है कि 'सच्चम्मि धिति कुव्वह' तू सत्य में धृति कर । सत्य में अधिष्ठित प्रज्ञावान मुनि समस्त पापों का शोषण करता है। ११२ वास्तव में सत्य शील साधक परमात्मपद प्राप्त करता है। आचारांग में कहा है-हे पुरुष! तू सत्य को भलीभाँति समझ । सत्यसाधक संसार-समुद्र से पार हो जाता है।११3 इतना ही नहीं, अपितु सत्य-साधक आत्म-साक्षात्कार कर लेता है। ११४ प्रश्नव्याकरण में तो यहाँ तक कहा है कि 'तं सच्चं खुभगवं१५ वह सत्य ही भगवान है और यही लोक में सारभूत तत्त्व है। उत्तराध्ययन में भी कहा है कि सत्यवती साधक को ब्रह्मत्व की प्राप्ति होती है।११६ गाँधीजी को दृष्टि में भी अहिंसा की अपेक्षा सत्य का स्थान ही सर्वोच्च रहा है । वे कहते हैं कि 'परमेश्वर की व्याख्याएँ अगणित हैं, क्योंकि उसको विभूतियाँ भी अगणित हैं। विभूतियाँ मुझे आश्चर्यचकित तो करती हैं, मुझे क्षण भर के
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