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________________ १८८ : आचारांग का नीतिशास्त्रीय अध्ययन है, वह तू ही है, अन्य कोई नहीं। ९९ यह है आचारांग की अद्वैत दृष्टि, जो कि अहिंसा का आधार है। __ इसमें सभी आत्माओं की सुख-दुःखात्मक अनुभूति को समानता को सिद्ध किया गया है तथा आत्मैक्यवाद की धारणा को प्रतिष्ठित कर हिंसा से विरत होने का निर्देश है। "जिसे तू हन्तव्य मानता है, वह तू ही है' इसका तात्पर्य यही है कि अन्य के द्वारा पीड़ा पहुँचाए जाने पर जैसी अगुभूति तुझे होती है, वैसी हो अनुभूति उसे भी होती है । यही कारण है कि ज्ञानी पुरुष ऋजु होता है। वह हन्तव्य और हन्ता की एकरूपता को समझकर किसी प्राणी को हिंसा नहीं करता, दूसरों से नहीं करवाता और न अनुमोदन ही करता है। ०० यह आत्मैक्य दृष्टि जागत होने से दसरों को पीड़ा देने की वत्ति ही समाप्त हो जाती है। इस स्थिति में अपने और पराये का द्वैत नहीं रहता है और जब द्वैत ही नहीं होता तो फिर वहाँ भय भी नहीं होता। उपनिषदों में भी 'द्वैतीयाद् वैभय' भवति शब्द के द्वारा इसी बात को व्यक्त किया गया है कि भय द्वैत से होता है, पर को कल्पना से होता है । जब तक किसी के प्रति परायेपन की बुद्धि रहती है, तब तक मनुष्य पर-पीड़ा से बच नहीं सकता। सर्वत्र आत्मौपम्य की अद्वैत दृष्टि ही मानव को वैर वैमनस्य, द्वेष-कलह, घृणा आदि वैयक्तिक एवं सामाजिक जीवन की विकृतियों से बचा सकती है। उपर्युक्त अद्वैत एवं अभेद बुद्धि के आधार पर ही सूत्रकार ने परस्पर हिंसा-प्रतिहिंसा से पीड़ित मानव को अहिंसा का सन्देश देते हए कहा है कि किसी भी जीव को मारना नहीं चाहिए, न उन पर अनुचित अनुशासन ही करना चाहिए, न उन्हें पोड़ित करना चाहिए न उन्हें पराधीन करना चाहिए और न उनका प्राणघात ही करना चाहिए, यही धर्म ध्रुव, शाश्वत और नित्य है। 10१ समस्त प्राणियों के प्रति यह आत्मौपम्य बुद्धि हो अहिंसा का आधार है, जो उसे सार्वभौमिक सत्य के रूप में प्रतिष्ठित करता है। आचारांग में अहिंसा केवल आदर्श के रूप में ही नहीं है, अपितु उसकी व्यावहारिक भूमिका भी प्रतिपादित है । यही कारण है कि उसमें अहिंसावती साधु को प्रत्येक प्रवृत्ति में सावधानी रखने का निर्देश है। अहिंसक व्यवहार वस्तुत एक आध्यात्मिक प्रयोग है । आचारांग के गहन अध्ययन से यह स्पष्ट हो जाता है कि उसमें श्रमणाचार सम्बन्धी जितने भी विधि-निषेध प्रतिपादित हुए हैं, वे सब मूलतः अहिंसा के संरक्षण एवं पोषण के लिए ही हैं। इतना ही नहीं, श्रमणाचार के अन्य चारों महा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002111
Book TitleAcharanga ka Nitishastriya Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Research, & Ethics
File Size13 MB
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