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पंचमहावतों का नैतिक दर्शन : १८३ समिति-आचारांग में निर्ग्रन्थ को संयम-साधना की सिद्धि के लिए चलने का निषेध नहीं है, किन्तु पूरी सावधानी से चलने के लिए कहा गया है जिससे किसी भी जीव को पीड़ा न पहँचे । भाषा समिति में बोलने पर सर्वथा प्रतिबन्ध नहीं लगाया गया है, परन्तु बोलते समय मनि को इस बात का पूर्ण विवेक रखना चाहिए कि कषाय वृत्तियों के वशीभूत होकर भाषा न बोली जाय ।७४
संयम यात्रा के निर्वाह के लिए यथोचित आहार भी ग्रहण करना पड़ता है। आचारांग में यह नहीं कहा गया है कि आहारादि के लिए प्रवृत्ति की जाय । अपितु उसमें यह कहा है कि मुनि निर्दोष आहारादि ग्रहण करे और उसे पूरी तरह से देखकर खाने-पीने के उपयोग में ले ताकि किसी जीव की हिंसा न हो।७५
आचारांग में वस्त्र-पात्रादि उपकरण उठाने-रखने के सम्बन्ध में भी यही निर्देश दिया गया है कि मुनि उन्हें पूण विवेकपूर्वक उठाए या कहीं रखे, अन्यथा जीवों की विराधना होती है ।७६
इसी प्रकार आचारांग में मल-मूत्र त्याग के सम्बन्ध में भी अनेक विधि निषेध वर्णित हैं । उसमें स्पष्ट निर्देश है कि-मलमूत्रादि ऐसे स्थान पर विसर्जित करना चाहिए, जिससे कोई जीवोत्पत्ति न हो, और न किसी के मन में घृणा भाव ही उत्पन्न हो ।
इस प्रकार हम देखते हैं कि समितियाँ विधि रूप भी हैं और निषेध रूप भी हैं। जहाँ समिति है, वहाँ गुप्ति भी है। ये अहिंसा रूपी एक सिक्के के दो पहलू हैं। अतएव ये दोनों परस्पर एक दूसरे से निरपेक्ष नहीं हैं।
( इसके अतिरिक्त आचारांग में अनेक स्थलों पर अहिंसा के विधि पक्ष का स्पष्ट उल्लेख है। जैसे-'रक्षा', 'दया', 'करुणा', 'सेवा', 'समता' आदि । सूत्रकार स्पष्ट रूप से कहता है कि भगवान महावीर ( सामायिक ) चारित्र को अपनाकर जगत् के जीवों के हित के लिए साधना में रत हो गये, अर्थात् विश्व के समस्त प्राणियों की रक्षा को दष्टि से हो कठोरतम साधना ( चारित्र) में प्रवृत्त हुए। यह तो स्पष्ट है कि भगवान महावीर ने सर्व-हित के संकल्प को लेकर साधना-मार्ग में प्रवेश किया था। इतना ही नहीं, प्रत्युत उन्होंने अपनी आध्यात्मिक पूर्णता के पश्चात भी लोक-कल्याणकारी भावना से अहिंसा धर्म का उपदेश दिया और सभी अर्हतों का प्रवचन भी लोक कल्याण के लिए
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