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पंचमहाव्रतों का नैतिक दर्शन : १६९ दृष्टिगत होता हैं । इतना ही नहों, उसमें अहिंसा के विधायक पहलू पर भी पर्याप्त प्रकाश डाला गया है। वस्तुतः अहिंसा आचारांग की साधना-पद्धति का सारभूत तत्त्व है । आचारांग में अहिंसा के निषेधात्मक स्वरूप का प्रतिपादन गुप्तियों के द्वारा और विधेयात्मक स्वरूप का प्रतिपादन समितियों के द्वारा किया गया है। यहाँ आचारांग में प्रतिपादित अहिंसा के स्वरूप की निर्णायिका 'आत्मौपम्य' दृष्टि का विवेचन किया जायेगा।
'आत्मौपम्य' शब्द का अर्थ है-संसार के समस्त प्राणियों में आत्मवत् बुद्धि का होना । जब यह आत्मवत् बुद्धि प्राणिमात्र के प्रति जागृत हो जाती है तो साधक दूसरों के प्रति वैसा ही आचरण करता है, जैसा वह दूसरों से अपने लिए चाहता है। वह जानता है कि प्रत्येक प्राणी सुख की कामना करता है और दुःख से दूर रहना चाहता है। अतः प्राणि-मात्र की आत्माओं के प्रति जब आत्मवत् बुद्धि हो जाती है तो साधक दूसरे प्राणियों को अरुचिकर सब प्रकार की हिंसात्मक भावनाओं से विरत हो जाता है। आचारांग में विश्वबन्धुत्व की परिचायिका इस आत्मौपम्य दृष्टि का प्रतिपादन निम्न प्रकार से किया है। ___ आचारांग में कहा है कि प्रत्येक जीव सुखाभिलाषी है और दुःख से भयभीत है। अतः किसी को हिंसा नहीं करनी चाहिए । मनुष्य जैसा अपने सम्बन्ध में सोचता है वैसा हो उसे दूसरों के सम्बन्ध में सोचना चाहिए। स्वरूपतः विश्व की समस्त आत्माएँ एक समान हैं। इस समानता को जानकर वह हिंसा से दूर रहे। अपने सुख-दुःख का परिज्ञाता व्यक्ति ही दूसरे की पीड़ा को समझ सकता है, दूसरों के सुख-दुःख का संवेदन, स्वसंवेदन के आधार पर ही जाना जा सकता है। आचारांग में अहिंसा सम्बन्धी विचार बहत स्पष्ट रूप से प्रतिपादित है। यथा-किसी की हिंसा मत करो, किसी को पीड़ा मत पहुँचाओ, सबको समान समझो, सबके साथ आत्म-तुल्यता का व्यवहार करो।' मुनि लोक के स्वरूप को जाने अर्थात् बाह्य-जगत् में व्याप्त समस्त जीवों को अपनी आत्मा के समान समझ कर किसी भी जीव का हनन न तो स्वयं करे और न दूसरों से करवाए। जो व्यक्ति आसक्ति पूर्वक आमोद-प्रमोदके निमित्त जीवों की हत्या करता है, वह अपने लिए वैर बढ़ाता है। अहिंसावतो तो यह संकल्प करता है कि मैं दीक्षित होकर किसी भी प्राणो की हिंसा नहीं करूंगा। वह मतिमान यह जानता एवं मानता है कि सभी जीव अभय चाहते हैं। इस आत्म-तुल्यता बोध के आधार पर
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