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ओचाराङ्गसूत्र स्वरूप एवं विषयवस्तु : ५ बिना विचारों या भावों को दूसरों भाषा या शब्दों के द्वारा ही मनुष्य
साधन है। शब्द अथवा भाषा के तक पहुँचाना लगभग असम्भव है । कालातीत विचारों के वातावरण में प्रवेश करता है ।
महावीर ने लोकभाषा अर्धमागधी में हो उपदेश दिया । वह भाषा मगध के आधे भाग में बोली जाती थी, अतः उसे अर्धमागधी कहा गया है । यह प्राकृत भाषा का ही एक रूप थी । उपलब्ध जैन आगम - ग्रन्थ अर्थमागधी भाषा में हैं । डा० हीरालाल जैन के अनुसार पैंतालीस आगम ग्रन्थों की भाषा अर्धमागधी है । २२ अर्धमागधी उस समय का लोक भाषा थी और वह आर्य भाषा कहलाती थी। जब-जब भाषा को व्याकरण के नियमों में कस दिया जाता है और क्लिष्ट, दुरूह शब्दों का बाहुल्य हो जाता है, तब-तब वह भाषा केवल विद्वानों को या विवेचन की भाषा रह जाती है । इसीलिए जनोपकारी तीर्थंकरों ने सदैव जन-भाषा का प्रयोग किया है ताकि अधिक से अधिक लोग धर्म का रहस्य सुगमता पूर्वक समझ सकेँ ।
समवायाङ्गर और औपपातिकसूत्र २४ में स्पष्ट उल्लेख मिलता है कि तीर्थंकर अर्ध-मागधी भाषा में ही धर्मोपदेश ( प्रवचन ) करते हैं । इसे देवों और आर्यों की भाषा भी कहा गया है । प्रज्ञापना" ओर भगवती २६ सूत्र में कहा गया है कि देव और आर्य अर्ध-मागधी भाषा में हो बोलते हैं । अतः स्पष्ट है कि यह भारत की एक प्राचीनतम लोकभाषा रही है ।
आचाराङ्गसूत्र अर्धमागधी प्राकृत भाषा में रचित है । इसमें अर्धमागधी के अधिक प्रयोग मिलते हैं। यहां यह भी उल्लेख कर देना आवश्यक है कि आचाराङ्गसूत्र के प्रथम एवं द्वितीय श्रुतस्कन्ध की भाषा में पर्याप्त अन्तर प्रतीत होता है । प्रथम श्रुतस्कन्ध की भाषा बहुत ही गठो हुई एवं सूत्रात्मक है । उसका प्रत्येक पद अपने आप में अर्थंगाम्भीर्य, पदलालित्य एवं भाषा सौष्ठव को लिए हुए है । इसमें प्रयुक्त पद, क्रियापद, सर्वनाम आदि अर्ध-मागधी के प्राचीन रूप हैं और वे द्वितीय श्रुतस्कन्ध की अपेक्षा अधिक प्रमाणभूत हैं, जैसे - प्रथम श्रुतस्कन्ध २७ में वर्तमान, तृतीय पुरुष, एकवचन परस्मैपद 'ति' का विशेष प्रयोग हुआ है जबकि द्वितीय श्रुतस्कन्ध" में 'इ' प्रत्यय का प्रयोग ।
वाक्य- विन्यास की दृष्टि से भी प्रथम श्रुतस्कन्ध के वाक्य संक्षिप्त एवं सुगम हैं। साथ ही भाषा के प्रयोग बड़े लाक्षणिक एवं अद्भुत हैं
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