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आचाराङ्ग का मुक्तिमार्ग : १५३ करेइ पावं" 'परमदंसी..."ओए समिय दंसणे'.. 'वीरा सम्मत्त दंसिणो'0' ..."णिकम्मदंसी इह मच्चिएहि..."जे अणण्णदंसी से' आदि प्रयोग देखे जा सकते हैं।
उपर्युक्त प्रयोगों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि सम्यक्दृष्टि ( यथार्थ दृष्टि ) प्राप्त हो जाने पर व्यक्ति की अन्तष्टि खुल जाती है, मोह का पर्दा टूट जाता है और आत्मा को सत्यतत्त्व का साक्षात्कार होने लगता है । पूर्वदृष्ट पदार्थ अपने नये स्वरूप में दिखाई देन लगते हैं। सम्यग्दृष्टि प्राप्त होते ही उसके समस्त मापदण्ड बदल जाते हैं । वह नये सिरे से प्रत्येक वस्तु का मूल्य निर्धारित करने लगता है क्योंकि उसकी दृष्टि ही सम्यक् या शुद्ध हा जाती है । दृष्टि के अनुरूप ही उसे सारी सृष्टि दिखाई पड़ती है। अतः सम्यग्दृष्टि आत्मा की चित्तवृत्ति का चित्रण करते हुए कहा गया है कि
चक्रवर्ती की सम्पदा, इन्द्रसरीखा भोग ।
काक बीट सम गिनत है सम्यग्दर्शी लोग ।। आचारांग के अनुसार विशुद्ध दृष्टि का प्राप्त होना ही सम्यग्यर्शन है।
आचारांग में कहीं-कहीं 'दर्शन' शब्द सिद्धान्त के अर्थ में भी प्रयुक्त हुआ है। जैसे 'एयं पासगस्स दंसणं१२' आदि । आचारांग में 'दर्शन' के लिए 'पासियणाणी'3' 'एयं पासमुणी' १४, 'संगं ति पासह', 'णालं पास', 'पुढोपास'१७, इत्यादि अनेक शब्द प्रयुक्त हुए हैं । ये उसके यथार्थ द्रष्टा अथवा साक्षीभाव को द्योतित करते हैं । ___ आचारांग में साधक के लिए बार-बार निर्देश है कि तू देख ! तू देख ! यहाँ देखने से तात्पर्य अपनी मनोवृत्तियों को देखना है, उनके प्रति जागरूक रहना, या अप्रमत होना है, क्योंकि जो आत्मा अपनी चित्तवृत्तियों के प्रति जागरूक रहता है या यथार्थ द्रष्टा होता है वही अपने शुद्ध ज्ञाता द्रष्टा स्वरूप में अवस्थित रहकर सत्यतत्त्व का साक्षात्कार करता है। इस प्रकार यथार्थद्रष्टा के लिए मुक्ति का द्वार उद्घाटित हो जाता है। वास्तव में सम्यग्दृष्टि सम्पन्न व्यक्ति ही यथार्थद्रष्टा बन सकता है।
आचारांग में 'दर्शन' शब्द का प्रयोग श्रद्धा के अर्थ में भी हुआ है। परन्तु यहाँ यह प्रश्न उठ सकता है कि श्रद्धा का आधार या आलम्बन क्या है ? आचारांग के अनुसार श्रद्धा के दो आधार माने गए हैं। एक सल्यतत्त्व और दूसरे सत्य के जीवन्त स्वरूप सद्गुरु या जिनाज्ञा । ये दो
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