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नैतिकता की मौलिक समस्याएँ और आचारांग : १४१
एवं चारित्र से दरिद्र साधुओं को तुम देखो । संयम भ्रष्ट साधकों एवं संयम भ्रष्टता के परिणामों को सम्यक्तया जानकर पण्डित, मेधावी निष्ठितार्थं वीर मुनि को सदा आगमानुसार संयम में पुरुषार्थ करना चाहिए | १४३ तात्पर्य यह कि ऐसे साधक पहले तो एक बार अहिंसक, सुव्रती और दमी बनकर सामान्य जन को प्रभावित कर देते हैं, किन्तु बाद में लोकैषणा या सुख-सुविधा में आसक्त हो जाते हैं । इसी बात को सूत्रकार ने 'उठकर पुनः पतित होते हुए साधुओं को तू देख' कहकर सम्बोधित किया है । ऐसा अज्ञानी साधक इस संयमी जीवन में भी विषय - पिपासा से छटपटाता हुआ अशरण को शरण मानता हुआ पापकर्मों में रमण करता है। १४४ कुछ साधु एकाकी रहकर साधना करते हैं । ऐसा एकाकी साधु अति क्रोधी-मानी, कपटी, लोभी, भोगों में अत्यासक्त, नट की भाँति बहुरूपिया, अनेक प्रकार की शठता एवं संकल्प करने वाला होता है । आस्रवों में आसक्त और कर्मरूप पलीते से लिपटा हुआ होता है । मैं धर्माचरण के लिए उद्यत हुआ हूँ ऐसा उत्थितवाद बोलता हुआ' मुझे कोई ( पाप कर्म करते हुए ) देख न ले इस आशंका से लुक-छिपकर अनाचरण करता है । वह अज्ञान ( दर्शन - मोह ) और प्रमाद ( चारित्र मोह ) के दोष से सतत मूढ़ बना हुआ धर्म को नहीं जान पाता । १४५ पश्चात् उन मुनियों के प्रति खेद व्यक्त करते हुए हैजो लोक की दुःखमयता को जान, पूर्व संयोगों को छोड़, उपशम का अभ्यास कर और ब्रह्मचर्य में वासकर, साधु या श्रावक धर्मं को यथार्थं रूप से जानकर कुछेक कुशील मुनि चारित्र धर्म का पालन करने में समर्थं नहीं होते हैं, वे साधना-मार्ग में आने वाले दुःसह परीषहों को नहीं सह सकने के कारण मुनिधर्मं ( वस्त्र - पात्र, कम्बल, पाद प्रोंछन ) को छोड़ देते हैं | विविध काम-भोगों में गाढ़ममत्व रखने वाले उन मुनियों की प्रव्रज्या छोड़ देने के बाद ही तत्क्षण, मुहूर्त्त भर में अथवा अपरिमित किसी भी समय में शरीर ( मृत्यु ) छूट सकता है । इस प्रकार वे कामाभिलाषी अनेक विघ्नों, द्वन्द्वपूर्ण काम भोगों से अतृप्त ही रहते हैं, उनका पार नहीं पा सकते हैं । काम-भोगों से अतृप्त रहकर बीच में ही समाप्त हो जाते हैं । १४३
इस सन्दर्भ में, आचारांग चूर्णिकार ने 'अच्चाई' शब्द के अर्थ को स्पष्ट करते हुए कहा है कि जिस साधक ने बाहर से पदार्थों का त्याग कर दिया, विषय- कषायों का उपशम भी किया है, ब्रह्मचर्य का पालन भी किया, शास्त्र ज्ञाता भी बन गया, परन्तु भीतर से यह सब नहीं
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