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१३८ : आचाराङ्ग का नोतिशास्त्रीय अध्ययन आचारांग सम्मत साधना काम-वासना के दमन की नहीं, अपितु विसर्जन या परिष्कार की साधना है। निरोध करने से प्रतिक्रिया उत्पन्न होती है, उससे वासना का विलय नहीं होता। उसे तो आचारांग में मानसिक तनाव, सांवेगिक असन्तुलन, असमाधि, आकुलता और चित्त-विक्षोभ का कारण कहा गया है । यदि इन्द्रियों का दमन कर तथा विषय-वासनाओं को उपशान्त ( दबाकर ) कर आगे बढ़ा जाता है तो वे समय पाकर पुनः उभर आती हैं। मात्र इन्द्रिय-निरोध या इच्छाओं को दबाने से व समूल नष्ट नहीं होती। बल्कि कुछ काल के लिए चेतन-मन से अचेतन मन में चली जाती हैं। बाद में ये ग्रंथियों का निर्माण करती हैं। इन ग्रंथियों से विकृतियाँ उत्पन्न होती हैं ।
आचारांग में आध्यात्मिक विकास के लिए मात्र इन्द्रिय निरोध की व्यर्थ बतलाया है। उसकी दृष्टि में भावावेश, इन्द्रिय-निरोध या वासनाओं का दमन अनुचित है क्योंकि अन्ततोगत्वा उसका परिणाम नैतिक जीवन के लिए हानिकारक होता है। यदि साधक विषय-वासनाओं के प्रति विराग के बिना इन्द्रियों का निरोध कर साधना की ओर बढ़ता है तो उसकी क्या स्थिति होती है, कैसा दुष्परिणाम आता है, आज से ढाई हजार वर्ष पहले सूत्रकार ने इस तथ्य को काफी कुछ वैसा हो प्रतिपादित किया है जैसा कि आधुनिक मनोविश्लेषक फ्रायड ने किया है। सूत्रकार ने बाह्य नियंत्रण या दमन के दुष्परिणामों को गहराई से समझा था। इसलिए साधक को बार-बार सावधान किया है। सूत्रकार कहता है कि जो इन्द्रिय-निरोध को साधना करते हुए भी पुनः मोहकर्म के उदय से कर्म के स्रोत इन्द्रिय-विषयों में आसक्त हो जाता है वह अज्ञानी जीव कर्म-बन्धन को तोड़ नहीं पाता। जिसने संयोगों का परि. त्याग नहीं किया है, तथा जो महान्धकार में निमग्न है, वह आत्महित एवं मोक्षोपाय को नहीं जान पाता। ऐसे साधक को वीतराग शासन ( तीर्थंकरों) की आज्ञा का लाभ नहीं मिलता।१३२ विषय को स्पष्ट करते हुए पूनः कहा गया है कि जो साधक शब्दादि विषयों में अगप्त अर्थात् मन-वाणी और काया से उनमें आसक्त हो रहा है, वह वीतराग आज्ञा के बाहर है। जो बार-बार विषयों का आस्वादन करता है, वह वक्र या कुटिल आचरण वाला है और वह प्रमत्त साधक गृह-त्यागी हाते हए भी गहवासी ही है । 33 कुछ साधक गृहवासी जैसा आचरण करते हैं,१३४ दीक्षित होकर या महाव्रतों को ग्रहण करके भी जो मुनि विषयासक्त बन जाता है उसका आचरण दम्भपूर्ण है, क्योंकि बाहर से वह
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