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नैतिकता की मौलिक समस्याएं और आचारांग : १२९ शुभ और अशुभ दोनों प्रकार की चैतसिक या आन्तरिक वृत्तियों से है संक्षेप में लेश्या का सम्बन्ध प्रशस्त एवं अप्रशस्त मनोभावों से है । __'लेश्या' की परिभाषा करते हुए कहा गया है कि 'लिश्यते प्राणी कर्मणा यथा सा लेश्या' प्रकारान्तर से लिश्यते-श्लिष्यते कर्मणा सह आत्मा अनयेति लेश्या५3अर्थात् जिसके द्वारा प्राणी या आत्मा कर्म से लिप्त होता है उसे लेश्या कहते हैं। दूसरे शब्दों में, पुद्गल द्रव्य के संसर्ग से उत्पन्न होने वाल जीव का अध्यवसाय ( विचार-परिणाम ) लेश्या है। लेश्याएँ छ: प्रकार की हैं-कृष्ण, नील, कपोत, तेज या पीत, पद्म और शक्ल । इनमें से प्रथम तीन लेश्याएँ अशुभ अध्यवसाय वाली हैं अर्थात् इनमें जीव की भूमिका अशुभ या क्लेशपूर्ण होती है और अन्तिम तीन शुभ अध्यवसाय वाली। ये लेश्याएँ द्रव्य (पौद्गलिक विचार) और भाव ( चैतसिक विचार ) की अपेक्षा से दो प्रकार की हैं।
आचारांग में 'लेश्या' की अवधारणा का मात्र दो-तीन स्थलों पर अस्पष्ट उल्लेख हुआ है। वहाँ लेश्या सिद्धान्त (स्वरूप, प्रकारादि) का विकसित रूप उपलब्ध नहीं होता, फिर भी आचारांग में प्राप्त लेश्या के प्रत्यय के आधार पर इतना कहा जा सकता है कि परवर्ती जैनग्रन्थों में लेश्या-सिद्धान्त का विकास सम्भवतः आचारांग की लेश्या की अवधारणा के आधार पर ही हुआ है। इन्द्रिय-निग्रह ( संयम):
जैन नैतिकता का चरम आदर्श मुक्ति या आत्मोपलब्धि है। उस परम आदर्श की प्राप्ति के लिए समस्त भारतीय मुक्ति मार्गों में विषयविरक्ति आवश्यक मानी गई है। आचारांग के अनुसार कर्म-बन्धन का मूलभूत अभिप्रेरक विषयासक्ति ही है। जो गुण (विषय-गुण ) है वह आवर्त है और जो आवर्त है वह गुण है ।५४ उत्तराध्ययन में भी कामासक्ति को ही दुःखों का मूल प्रेरक माना गया है ।५५ आचारांग में इसके अतिरिक्त राग, द्वेष, कषाय, हास्य, रति-अरति, शोक-भय आदि कर्मप्रेरकों का उल्लेख मिलता है । पाश्चात्य मनोविज्ञान में भी मुख्य रूप से चौदह मूल प्रवृत्तियों को स्वीकार किया गया है। किन्तु प्राणी के व्यवहार का मूलभूत प्रेरक सूत्र काम-वासना अथवा आसक्ति को ही माना गया है। भारतीय परम्परा-गीता, गीता शांकरभाष्य५७, धम्मपद अंगुत्तरनिकाय५९, सुत्तनिपात आदि में भी तृष्णा, काम या छन्द को एकमात्र कर्म-प्रेरक माना गया है।
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