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________________ आचारांङ्ग का नैतिक मनोविज्ञान : १२७ चैतन्य की विस्मृति, अपने आपको भूल जाना या अपने स्वभाव को भूल जाना ही प्रमाद है। प्रमादी व्यक्ति विषय कषायों के वश में हो जाता है। विषय-कषायों के कारण मन मलिन हो जाता है। प्रमाद दशा में शान्त और शिथिल वासनाएँ, कामनाएँ मनोवेग (क्रोधादिकषाय ) पुनः उभर आते हैं । जितनी ही आत्म-विस्मृति होती जाती है उतना ही भय बढ़ता जाता है। इसके विपरीत, संयमनिष्ठ, अप्रमादी साधक की भय की स्थिति विलीन हो जाती है। वह निर्भय विचरण करता है । जो अभय होता है, वही अन्यों को अभय दे पाता है। आचारांग में कहा गया है कि वह साधक कषायरूप लोक को जानकर अकुतोभय हो जाता है।३४ अर्थात् अभय वही व्यक्ति हो सकता है, जो अशक्ति को तोड़ चुका है, छोड़ चुका है । उसे दुनिया में कोई भयभीत नहीं कर सकता, क्योंकि अप्रमत्त साधक सभी कामनाओं, वासनाओं एवं पापकर्मों से उपरत रहता है३५ और वही साधक मन को निर्मल करता है, जागरूकता के कारण उसकी चित्त-शुद्धि बराबर बनी रहती है, इसीलिए कहा गया है कि 'सुत्ता अमुणी सया, मुणिणो सया जागरंति' अज्ञानी जन सोए रहते हैं और ज्ञानी जन अथवा अप्रमादी सदा (आत्म स्वरूप में) जागृत रहते हैं । यहाँ जागते रहने से तात्पर्य अपनी मनोवृत्तियों को देखते रहना या उनपर निगरानी रखना है। आचारांग की साधना-पद्धति में जागरूक रहना चित्त-शुद्धीकरण का मनोवैज्ञानिक उपाय है। जब तक साधक गहराई से अपनी वृत्तियों को नहीं देखता है, उन्हें नहीं टटोलता है, उनका प्रतिलेखन नहीं करता है तब तक उसे छोड़ नहीं पाता है। जैसेजैसे जागरूक भाव पूष्ट होता जाता है, वैसे-वैसे ही ये दुष्प्रवृत्तियाँ विलीन होती जाती हैं, मनोमालिन्य दूर होता जाता है। इसीलिए महावीर ने कहा है कि साधक महामोह के प्रति अप्रमत्त रहे । शान्ति (मोक्ष) और मरण ( संसार ) एवं शरीर की नश्वरता की सम्यक्तया सम्प्रेक्षा कर प्रमाद से बचना चाहिए। एक स्थान पर यह भी कहा है कि साधक लोभ को महान नरक के रूप में देखे । जो उन्हें देखता है उनमें कषाय नहीं पनप सकते । जागरूक अवस्था में सभी पाप-वत्तियाँ उपशान्त हो जाती हैं । आन्तरिक बन्धन शिथिल होने लगते हैं। इस सम्बन्ध में आधुनिक मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण एवं आचारांग की मान्यताओं में साम्य परिलक्षित होता है । किन्तु प्रश्न यह है कि सतत जागरूक या अप्रमत्त कैसे रहा जाए ? आचारांग स्पष्ट रूप से कहता है कि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002111
Book TitleAcharanga ka Nitishastriya Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Research, & Ethics
File Size13 MB
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