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आचाराङ्ग का नैतिक मनोविज्ञान : १२५ आचारांग में आगे इसी बात की पुष्टि करते हुए कहा है
जे एगं णामे से बहु णामे, जे बहु णामे से एगं णामे । ( १।३।४)
आचारांग के उपर्युक्त सूत्रों का आशय बड़ा गम्भीर प्रतीत होता है। आज तक इन सूत्रों के अर्थ के सम्बन्ध में तात्त्विक दष्टिकोण से ही चिन्तन किया जाता रहा है जबकि ये सूत्र मनोविज्ञान के ऐसे आयामों को भी अनावृत करते हैं जिन पर आज तक हमारी दृष्टि ही नहीं गयी है। सूत्रकार का स्पष्ट मन्तव्य है कि जो साधक एक कषाय या मनोवृत्ति का सम्यक् रूप से ज्ञाता-द्रष्टा होता है, वह सभी मनोवृत्तियों का ज्ञाता-द्रष्टा बन जाता है और एक कषाय का विजेता समस्त कषायों का विजेता बन जाता है। इसका कारण यह है कि समस्त मनोवृत्तियों में परस्पर सम्बन्ध है। यदि व्यक्ति क्रोध के यथार्थ स्वरूप को जान लेता है तो वह अन्य मान आदि कषायों को भी जान (देख) लेता है। इसी को स्पष्ट करते हुए आचारांग में कहा गया है जो क्रोध को देख लेता है, वह अहंकार को भी देख लेता है। जो मान को देख लेता है, वह कपट-वृत्ति को भी देख लेता है। जो कपट-वृत्ति को देख लेता है वह भली-भाँति लोभ को देख लेता है। जो लोभ को देख लेता है, वह राग-द्वेषात्मक वृत्तियों को देख लेता है। जो राग-द्वेष को देख लेता है, वह मोह के वास्तविक स्वरूप को देख लेता है। जो मोह को देख लेता है, वह गर्भ के दुःख को देख लेता है, वह जन्म-मरण के प्रवाह को देख लेता है और जो जन्म-मरण के चक्र को देख लेता है वह समची ( संसार की) दुःख-प्रक्रिया को जान (देख) लेता है।' १९ उपर्यक्त विवेचन से यह स्पष्ट है कि जो साधक ज्ञ-परिज्ञा से इन पारस्परिक सम्बद्ध वृत्तियों को यथार्थ रूप से जान-(देख) लेता है, वही व्यक्ति इन्हें आत्म-घातक एवं अहितकर समझकर इनका परित्याग कर सकता है, क्योंकि 'ज्ञानस्य फलं विरति' ज्ञान का फल विरति या पापोंका परित्याग है । इस लम्बे क्रम को बताने के बाद सूत्रकार कहता है कि क्रोधादि के स्वरूप को जान लेने के बाद वह प्रबुद्ध साधक क्रोधादि कषायों से तुरन्त निवृत्त हो जाता है२० और फिर उस आत्म-द्रष्टा साधक को कोई उपाधि नहीं रह जाती है।
इस प्रकार यह स्पष्ट है कि कषायों को आत्मोपलब्धि में बाधक माना गया है। आचारांग में स्पष्ट कहा गया है कि साधक क्रोधादि कषायों को छोड़ दे२२ क्योंकि इस आवेगात्मक अवस्था में व्यक्ति पशु तुल्य हो जाता है । उसको दूरदर्शिता एवं विवेक-बुद्धि कुण्ठित हो जाती
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