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________________ भक्तामर की पद्यसंख्या श्वेताम्बर विद्वानों के इस खुलासे पर हमें तो कोई यकीन नहीं होता है । अष्ट-प्रातिहार्यों वाली तालिका क्रमांक ६ में हमने कोष्ठक में प्रत्येक स्रोत के भीतर सम्बन्धकर्ता प्रातिहार्य किस क्रमांक पर आता है, बता दिया है । वह देखते हुए स्पष्ट है कि वहाँ ‘क्रम' से तो कोई सम्बन्ध है ही नहीं । एक ही पद्य में प्रातिहार्यों को बता देने वाले स्रोतों में तो कर्ता को छन्द में मात्रा-मेल और गणादि का ख्याल करना पड़ा है और गद्य वा दण्डकप्राय: शैली में लिखने वालों में कुछ हद तक विभूतियों का आविर्भाव किस क्रम में होना स्वाभाविक दिखाई देता है, इस हिसाब से लिखा है । देशना के समय सबसे पहले व्यंतर देवों द्वारा चैत्यवृक्ष का सर्जन होता है; तत्पश्चात् सिंहासन, यक्ष-युग्म द्वारा धारण किया हुआ चामर, और छत्र प्रकट होता है । तीर्थंकर के आसनस्थ होते ही भामण्डल का आविर्भाव हो जाता है, दुन्दुभिनाद और कुसुमवृष्टि का आरंभ हो जाता है और दिव्यध्वनि सुनाई पड़ती है । मानतुंगाचार्य की वर्णना में प्रथम अशोकवृक्ष तत्पश्चात् सिंहासन, चामर और छत्रत्रय लिया गया है जो स्वाभाविक क्रम में ही है । पर इसके अतिरिक्त प्रातिहार्य रूप में मानी जाने वाली विभूतियाँ कवि की कल्पना में नहीं थी । जो वे कह गये, वह चार ही उनको अभीष्ट रहे एवं उनके लिए पर्याप्त थे, जैसा कि आवश्यकनियुक्तिकार, वसुदेवचरितकार, आवश्यकचूर्णिकार, चउपन्नमहापुरिसचरियकार आदि को । दूसरे शब्दों में वे अतिशय के विभाव को लक्ष्य करके चले हैं, अष्ट-प्रातिहार्यों से उनके कथन का सम्बन्ध है ही नहीं । फिर भी यदि यहाँ अष्ट-प्रातिहार्य अभिप्रेय थे, ऐसा बलात्कारपूर्वक कहना ही है तो हम और आगे बढ़कर कहेंगे कि दिगम्बर मान्य ३४ अतिशयों का वर्णन करने के लिए ३४ विशेष पद्य, और क्योंकि कवि समवसरण का वर्णन करना ही भूल गये हैं (दिव्य समवसरण के बिना अष्ट-महाप्रातिहार्यों का उद्भव कैसे ? सार्थकता कैसी ?) इसलिए १८ पद्यों में वह विषय निबद्ध करके स्तोत्र को शतक ही क्यों न बना दिया जाय ? कोई आपत्ति नहीं ! बल्कि स्तोत्र तब ही कृत्स्नरूपेण बनेगा और राब ही पूर्णतया "निर्दोष" भी कहा जा सकता है । (आज भी संस्कृत में पद्य रच सकने वाले पंडितों की कमी नहीं है ।) पीछे हम देख आये है कि डा० रुद्रदेव त्रिपाठी ने अपनी प्रस्तावना में सूरिवर सागरानन्द जी द्वारा भक्तामर की पद्य संख्या के विषय में हुई चर्चा का उल्लेख किया था, किन्तु वह कहाँ की गई थी, कोई सन्दर्भ नहीं दिया । बहुत खोज के बाद उसका पता मिल जाने से यहाँ वह अनुवाद-रूपेण प्रस्तुत करके सूरीश्वर की दी गई युक्तियों पर आगे विचार किया जायेगा । सूरिजी द्वारा की गई मूलगत चर्चा प्रश्नोत्तरी के रूप में है । "प्रश्न ७३८- भक्तामर स्तोत्र में ४८ काव्य होने का कुछ लोग कहते हैं, जब कि कुछ कहते हैं कि असल में ही ४४ काव्य हैं, तब इन दोनों में से क्या माना जाय ? समाधान - भक्तामर स्तोत्र से कल्याणमन्दिर स्तोत्र प्राचीन है, यह बात सर्वमान्य है । कल्याणमन्दिर के काव्य ४४ हैं, उसमें किसी का मतभेद नहीं है, तब कल्याणमन्दिर के अनुकरण से बाद में किये गये भक्तामर स्तोत्र में भी ४४ काव्य हों, यह ज्यादा संभावित है । जो लोग ४८ काव्य मानते हैं वे भी २८वें में अशोकवृक्ष, २९वें में सिंहासन, ३०वें में चामर तथा ३१वें में छत्र मानकर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002107
Book TitleMantungacharya aur unke Stotra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM A Dhaky, Jitendra B Shah
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year1999
Total Pages154
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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