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________________ १०६ मानतुंगाचार्य और उनके स्तोत्र १) महान् दिगम्बराचार्यों एवं उपासक कविवरों की स्तुत्यात्मक कृतियाँ प्राय: दर्शन-प्रवण हैं । वे दार्शनिक एवं न्यायपरक परिभाषा एवं विभावों से छायी हुई दिखाई देती हैं । स्वामी समन्तभद्र, पूज्यपाद देवनन्दी, पात्रकेसरी स्वामी, भट्ट अकलंकदेव, महाकवि धनंजय, आदि प्राक्मध्यकालीन-विभूतियों की स्तुतियों में यह बात तो सहज नज़र में आ जाती है, परन्तु विद्यानन्दस्वामी (प्राय: ईस्वी १०वीं शती पूर्वार्ध), कवि भूपाल चक्रवर्ती (१०वीं-११वीं शती), माथुरसंघीय आचार्य अमितगति (१०वीं अन्तिम चरण और ११वीं शती पूर्वार्ध) द्राविड संघ के आचार्य वादिराज (११वीं शती पूर्वार्ध) और कुमुदचन्द्र (१२वीं शती पूर्वार्ध) आदि सुप्रसिद्ध मध्यकालीन दिगम्बर कर्ताओं की स्तवनादि रचनाओं में भी तीर्थंकरों के गुणानुवाद दार्शनिक व्यंजना से स्पर्शित हैं । भक्तामरस्तोत्र में तो विशुद्ध भक्तिभाव ही दृष्टिगोचर होता है । ऐसी ही प्रवृत्ति, वादि-कवि भद्रकीर्त्ति अपरनाम बप्पभट्टि (प्राय: ईस्वी ७३४-८२९ या ७४४८३९), मध्यकालीन कवियों में जिनशतककार कवि जम्बूनाग (प्राय: ईस्वी ९५०), मुञ्ज-भोज के सभाकवि धनपाल (१०वीं-११वीं शती) और उनके लघुबन्धु शोभन मुनि (१०वीं-११वीं शती), अभयदेवसूरि (११वीं शती उत्तरार्ध), महान् खरतरगच्छीय स्तुतिकार जिनवल्लभसूरि (प्राय: ईस्वी १०७०१११०), जिनदत्तसूरि (ईस्वी १११०-११४२) एवं बाद की तो अनेक श्वेताम्बर कृतियों में दिखाई देती है । यह तथ्य भक्तामरकार के सम्प्रदाय विनिश्चय में कुछ हद तक उपयुक्त समझा जा सकता है । स्पष्ट है, मानतुंग दार्शनिक परम्परा के कवि नहीं थे । २) कर्णाटक के मध्यकालीन दिगम्बर शिलालेखों के अंतर्गत एवं दिगम्बर पट्टावलियों में उनके सम्प्रदाय के अनेक महान् आचार्यों का उल्लेख मिलता है परन्तु वहाँ कहीं भी 'मानतुंग' का नाम नहीं मिलता, इसका क्या खुलासा हो सकता है ? ३) जैसा कि हम पीछे देख चुके हैं, अष्टमहाभयों का उल्लेख गुप्तकाल एवं प्राक्मध्यकाल से लेकर उत्तर-मध्यकाल के श्वेताम्बर स्तवनों एवं कहीं-कहीं मध्यकालीन-उत्तरमध्यकालीन सैद्धान्तिक समुच्चयस्वरूप ग्रन्थ रचनाओं में खूब मिलता है । वहाँ इस विभाव की उपस्थिति की निरंतरता रही है। दूसरी और दिगम्बर स्तुत्यात्मक साहित्यादि में यह बात देखने में नहीं आती । कुमुदचन्द्र के सामने भक्तामरस्तोत्र रहा था, फिर भी उन्होंने अष्टमहाभय विषयक पद्य कल्याणमन्दिरस्तोत्र या अपनी दूसरी कृति चिकूरद्वात्रिंशिका में ग्रथित नहीं किया; क्योंकि उनके यहाँ यह परम्परा ही नहीं थी । यह तथ्य भी सम्प्रति चर्चा के सन्दर्भ में उपयुक्त बन सकता है । ४) पीछे हम एक बात और भी देख चुके हैं कि भक्तामर में अष्ट-महाप्रातिहार्यो को लेकर नहीं पर आगमप्रणीत अतिशयों में से चुनकर चार दृश्यमान-सामीप्यमान विभूतियाँ, जो तीर्थंकरों की देशना के समय पर प्रत्यक्ष बनती थीं. उनका ही वर्णन है और यह परिपाटी छठी-सातवीं शताब्दी की श्वेताम्बर आगमिक व्याख्याओं और कथात्मक साहित्य में भी देखने में आती है । (देखिए तालिका क्रमांक ५ ।) इस तथ्य के ही परिप्रेक्ष्य में भक्तामर के विभूति का वर्णन करने वाले चार ही मौलिक पद्य की संगति बैठ सकती है । (दिगम्बर परिपाटी में यही विभूतियाँ ३४ अतिशयों के अन्तर्गत नहीं, अष्ट-महाप्रातिहार्यो में समाविष्ट हैं । इसलिए वे उनकी दृष्टि से शेष रह जाते ४ प्रातिहार्य स्तोत्र में होना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002107
Book TitleMantungacharya aur unke Stotra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM A Dhaky, Jitendra B Shah
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year1999
Total Pages154
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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