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________________ स्तोत्रकर्ता का सम्प्रदाय आचार्य मानतुंग ने अपने दो में से एक भी स्तोत्र में न तो अपने समय, न ही सम्प्रदाय-निदर्शक कोई संकेत दिया है और उनके सम्प्रदाय के विनिर्णय का कार्य भी एकदम आसान नहीं है । वर्तमान में विद्यमान निर्ग्रन्थ-दर्शन के दोनों सम्प्रदाय मानते हैं कि पहले वे विपक्षी सम्प्रदाय में हुए थे और बाद में अपने सम्प्रदाय में दाखिल हो गये थे; वस्तुतया ऐसे दावे के समर्थक आनुश्रुतिक कथाएँ भी दोनों द्वारा मध्यकाल में गढ़ दी गई हैं । पं० अजितकुमार शास्त्री ने लिखा है : “मानतुंगाचार्य दिगम्बर थे या श्वेताम्बर यह बात अभी इतिहास से ठीक ज्ञात नहीं हो पायी है; क्योंकि न तो उनकी और कोई निर्विवाद रचना पाई जाती है जिससे इस बात का निर्णय हो सके और न भक्तामरस्तोत्र में ही कहीं कुछ ऐसा शब्द-प्रयोग पाया जाता है जिससे उनका श्वेताम्बरत्व या दिगम्बरत्व का निर्णय किया जा सके। उपलक (superficial) दृष्टि से तो यह बात सही है; फिर भी कई मुद्दे ऐसे भी हैं, जो इस समस्या के निराकरण में कुछ हद तक सहायक बन सकते हैं । हम यहाँ कर्ता के सम्प्रदाय के विषय में गवेषणा समेत जो चर्चा करना चाहेंगे वह केवल ऐतिहासिक दृष्टिकोण को लेकर ही होगी । इससे कुछ भी सिद्ध हो सके. इसको साम्प्रदायिक अभिनिवेश से परे ही मानना चाहिए । समस्त निर्ग्रन्थदर्शन में बने हए अच्छे स्तोत्रों (और अन्य भी उत्तम रचनाएँ) के वारिस उनके सभी अस्तित्वमान सम्प्रदाय एवं उपाम्नायें समान रूप से हैं और समादर से सब निर्ग्रन्थानुयायी उसका पठन-रटन करें उसमें कोई दुविधा, रोकटोक, होंसातोंसी, और अपनापन-परायापन, बड़प्पन-छोटप्पन या पुरानापन-नयापन का प्रश्न ही नहीं उठता । इसलिए स्तोत्रकार के सम्प्रदाय निर्णय करते समय इस पर लिखे गये सभी निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थेतर विद्वानों के मंतव्यों-धारणाओं की, उपलब्ध साधनों एवं लभ्यमान बाह्य तथा अभ्यंतर प्रमाणों के आधार पर, परीक्षा एवं समीक्षा करनी होगी । इसमें से जो अन्तिम, कुछ हद तक विशेष प्रमाणपूत एवं प्रतीतिपूर्ण निर्णय प्राप्त हो सके, वही यहाँ प्रस्तुत करना ठीक होगा । १) भक्तामरस्तोत्र का सर्जक एवं सर्जन-सम्बद्ध वृत्तान्त, तदतिरिक्त इस पर वृत्त्यादि कृतियाँ, और समस्यापूर्ति-रूप प्रतिकाव्यों की रचना दिगम्बर की अपेक्षा श्वेताम्बर सम्प्रदाय में अधिक संख्या में हुई हैं और उनमें से थोड़ी-बहुत दिगम्बर कृत्तियों से पुरानी भी हैं । लेकिन कथात्मक साहित्य का दन्तकथ से बढकर मल्य नहीं: और वत्त्यादि साहित्य भी ईस्वी १३वीं-१४वीं शताब्दी से प्राचीन नहीं तथा समस्यापूर्तिरूप काव्य भी १६वीं शती से पुराने नहीं हैं । ऐसी स्थिति में उन मुद्दों को लेकर मानतुंगसूरि श्वेताम्बर सम्प्रदाय में हुए थे ऐसा निश्चयपूर्वक कहने के लिए कोई ठोस प्रमाण नहीं बन पाता। ठीक इसी तरह भक्तामरस्तोत्र की प्राचीनतम हस्तप्रतियाँ श्वेताम्बर ग्रन्थभण्डारों से ही प्राप्त हुई हैं, इस पर भी ज्यादा जोर देने से विशेष अर्थ नहीं निकल सकता । यह एक तरह से आकस्मिक भी माना जा सकता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002107
Book TitleMantungacharya aur unke Stotra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM A Dhaky, Jitendra B Shah
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year1999
Total Pages154
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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