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६७ वें पट्टधर कक्कसूरि का आचार्यपद महोत्सव शाह जागर के द्वारा वि० सं० १३७८ में हुआ था इनके सम्बन्ध में वि० सं० १३८० से १४०५ तक के अनेक अभिलेख मिलते हैं । पट्टावली के अनुसार ६८ वें पट्टधर देवगुप्तसूरि हुए । इनका आचार्य पद महोत्सव ५ हजार स्वर्णमुद्रायें खर्च करके सारंगधर नामक श्रावक ने दिल्ली नगर में वि० सं० १४०९ में किया था । इनके सम्बन्ध में अभिलेखीय साक्ष्य वि० सं० १४३० का मिलता है ।
६९वें पट्टधर सिद्धसूरि हुए। पट्टावली के अनुसार वि० सं० १४७५ में इनका आचार्यपद महोत्सव किया गया। यद्यपि इनके संबंध में अभिलेखीय साक्ष्य वि०सं० १४४५ का मिलता है । यह एक विवादास्पद स्थिति है । क्योंकि देवगुप्तसूरि का आचार्यपद महोत्सव पट्टावली के अनुसार १४०९ में है और उनका अभिलेखीय साक्ष्य भी १.३० का है । अतः यह स्वाभाविक प्रतीत होता है कि वि० सं० १४५५ के लगभग सिद्धसूरि हुए होंगे। पट्टावली १४७५ वि० सं० में होने वाले जिस सिद्धसूरि का उल्लेख करती है, वे संभवतः ७२वें पट्टधर होंगे । हमें ऐसा लगता है कि पट्टावली में देवगुप्त सूरि के पश्चात् सिद्धसूरि कक्कसूरि और देवगुप्तसूरि की एक पुनरावृत्ति को छोड़ दिया गया है, क्योंकि ७१ वें पट्टधर देवगुप्तसूरि के सम्बन्ध में हमें १४६८ से १४९७ तक के अनेक अभिलेख उपलब्ध होते हैं । वि० सं० १४३० से वि सं ० १४९४ तक की अवधि में हमें एक ही साथ देवगुप्त एवं सिद्धसूरि के अनेक अभिलेखीय साक्ष्य मिलते हैं । इससे ऐसा लगता है कि इस अवधि के बीच तीनों नामों की एक पुनरावृत्ति और हुई होगी । पट्टावली के अनुसार ७२ वें पट्टधर सिद्धसूरि हुए । पट्टावली इनका काल वि० सं० १५६५ मानती है । हमें इनके सम्बन्ध में १५६६ से ७६ तक के अनेक अभिलेख उपलब्ध होते हैं ।
७३ वें पट्टधर कक्कसूरि हुए। पट्टावली के अनुसार इन्हें वि० सं० १५९९ में जोधपुर नगर में आचार्यपद प्रदान किया गया । इनके सम्बन्ध में कोई अभिलेखीय साक्ष्य उपलब्ध नहीं है ।
७४वें पट्टधर देवगुप्तसूरि का पाटमहोत्सव वि० सं० १६३१ में मंत्री सहसवीर के पुत्र देदागर ने किया । इनके सम्बन्ध में १६३४ का एक अभिलेख भी उपलब्ध होता है ।
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