SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 53
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [ ५१ ] कोई प्रामाणिक आधार उपलब्ध नहीं हो पा रहा है। हमें केवल परम्परागत मान्यता पर ही विश्वास करना होता है। यह विश्वास किया जाता है कि रत्नप्रभसूरि के समय में ही उपकेशगच्छ से कोरण्टगच्छ निकला। किन्तु उपकेशगच्छ और कोरण्टगच्छ ईसा पूर्व पाँचवीं शताब्दी में अस्तित्ववान् थे, इसका भी कोई साहित्यिक या पुरातात्त्विक साक्ष्य उपलब्ध नहीं है । उपकेशगच्छ के सम्बन्ध में सबसे प्राचीन पुरातात्विक साक्ष्य वि० सं० १०११ का तथा कोरण्टगच्छ का वि० सं० ११०२ का उपलब्ध होता है । जैन : परम्परा के गण, कुल एवं शाखा आदि के सम्बन्ध में प्राचीनतम उल्लेख कल्पसूत्र पट्टावली, नंदीसूत्र पट्टावली तथा मथुरा के अभिलेखों में प्राप्त होते हैं । इन अभिलेखों में कहीं भी इन दोनों गच्छों का नाम नहीं आता है। उपकेशगच्छीय पट्टावली की मान्यतानुसार रत्नप्रभ पाव की परम्परा के सातवें आचार्य थे। उनके पट्ट पर आठवें यक्षदेव आचार्य हुए और इन्हें मणिभद्र यक्ष का प्रतिबोधक भी बताया गया है। किन्तु यह एक विश्वास ही कहा जा सकता है। यक्षदेवाचार्य के पश्चात् नवें पट्ट पर कक्कसूरि, दसवें पट्ट पर देवगुप्त, ११वें पर सिद्धसूरि और १२वें पर रत्नप्रभ और १३ वें पर पुनः यक्षदेवसुरि हुए, यह उल्लेख मिलता है। किन्तु इस सम्बन्ध में न तो कोई साहित्यिक प्रमाण है और न ही कोई पुरातात्त्विक साक्ष्य है। उपकेशगच्छ पट्टावली वि० सं० १६५५ में निर्मित है, अतः प्राचीन साक्ष्यों के सम्बन्ध में इसे पूर्णतः प्रामाणिक नहीं माना जा सकता। उक्त पट्टावली के अनुसार चौदहवें पट्ट पर पुनः कक्कसूरि हुए । यह माना जाता है कि इनके द्वारा ओसवाल वंश में तांतहड, बापणा, कर्णाट, मोटाक्ष, कुलहट, विरिहट, सूचन्ति, चारवेडिया, चींचट, कुम्भट आदि गोत्र स्थापित हुए। इनका समय वीर निर्वाण के तीन सौ तीन वर्ष पश्चात् बताया गया है। इनके पश्चात् पंद्रहवें पट्ट पर देवगुप्त, १६वें पर सिद्धसूरि और १७वें पर रत्नप्रभसूरि के होने के उल्लेख मिलते हैं। इनके सम्बन्ध में पट्टावली में भी अन्य कोई विवरण उपलब्ध नहीं है । १८वें पट्ट पर पुनः यक्षदेवसूरि के होने का उल्लेख है । इनका समय वीर निर्वाण के ५८५ वर्ष पश्चात् बताया गया है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002104
Book TitleArhat Parshva aur Unki Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1988
Total Pages86
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Mythology, & Literature
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy