________________
[ ४७ ]
पार्श्वनाथ और पाइथागोरस की परम्परा
पार्श्वनाथ की परम्परा के पिहितास्रव के सम्बन्ध में एक यह भी मान्यता है कि वे ग्रीस की ओर गये थे और ग्रीस में जो पाइथागोरस का सम्प्रदाय है वह पार्श्वनाथ की परम्परा के पिहितास्रव से संबंधित है । यह भी सत्य है पाइथागोरस की मान्यताओं के संबंध में आज जो सूचनायें उपलब्ध हैं; उनसे स्पष्ट रूप से ऐसा लगता है कि वे भारतीय श्रमण परंपरा और उसमें भी निर्ग्रन्थ परम्परा के - अधिक निकट है । 182 तुलनात्मक दृष्टि से हम कुछ विवरण प्रस्तुतः कर रहे हैं । सर्वप्रथम पाइथागोरस हिंसा का उतना ही विरोधी था 'जितने श्रमण परम्परा के धर्म । उसके अनुयाइयों के लिए मांसाहार सर्वथा वर्जित था । इसी प्रकार पाइथागोरस आत्मालोचन की प्रक्रिया पर उतना ही बल देता था जितना कि जैन परम्परा में प्रतिक्रमण पर दिया जाता है। फिर भी पिहितास्रव और पाइथागोरस को अन्य साक्ष्यों के अभाव में मात्र विचार साम्य के आधार पर एक मान लेना उचित नहीं होगा । इस सम्बन्ध में गम्भीर शोध अपेक्षित है ।
पार्श्वनाथ परम्परा की पट्टावलो
T33
वर्तमान में श्वेताम्बर परम्परा में उपकेशगच्छ एक ऐसा गच्छ है जो अपने परम्परा को सीधे पार्श्वनाथ से जोड़ता है । 188 उसकी पट्टावली के अनुसार भगवान् पार्श्वनाथ के प्रथम पट्टधर गणधर शुभदत्त हुए | ये पार्श्वनाथ के निर्वाण के चौबीस वर्ष पश्चात् तक आचार्य पद पर रहे । आचार्य शुभदत्त के पट्टधर आर्य हरिदत्त हुए । इनका समय पार्श्व निर्वाण सम्वत् २४ से ९४ तक माना जाता है । इनके द्वारा लोहित्याचार्य को जैन धर्म में दीक्षित करने सम्बन्धी अनुश्रुति प्रचलित है । आर्य हरिदत्त के पट्टधर आर्य समुद्र हुए। आर्य समुद्र का काल पार्श्व निर्वाण सम्वत् ९४ से १६६ तक माना जाता है । इस प्रकार ये इकहत्तर वर्ष तक आचार्य पद पर रहे । इनके पश्चात् आर्य केशी श्रमण पावपत्य परम्परा के आचार्य हुए। पट्टावली के अनुसार इनका समय पार्श्व निर्वाण सम्वत् १६६ से २५० तक माना जाता है । आगम साहित्य में उपलब्ध सूचना के अनुसार आर्य केशी भगवान्
•
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org