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अर्हतु पार्श्व और उनकी परम्परा
पार्श्व की ऐतिहासिकता
पार्श्व को महावीर का पूर्ववर्ती एवं जैन परम्परा का २३ वां तीर्थंकर माना जाता है । जैन धर्म के तीर्थंकरों में पार्श्व और महावीर ही ऐसे व्यक्तित्व हैं जिनकी ऐतिहासिकता निर्विवाद रूप से स्वीकार की जा सकती है । सामान्यतया किसी व्यक्तित्व की ऐतिहासिकता का निश्चय करने के लिए अभिलेखीय और साहित्यिक साक्ष्य महत्वपूर्ण होते हैं । जहाँ तक पार्श्व की ऐतिहासिकता के निर्धारण का प्रश्न है, उनके सम्बन्ध में हमें अभी तक ईसा पूर्व का कोई भी अभिलेखीय साक्ष्य उपलब्ध नहीं हुआ है और अब ऐसे साक्ष्य के उपलब्ध होने की सम्भावना भी धूमिल ही है । भारत में अभी तक पढ़े जा सके जो भी प्राचीनतम अभिलेख उपलब्ध हुए हैं, वे मौर्यकाल से अधिक प्राचीन नहीं हैं । सिन्धु घाटी की सभ्यता के अभिलेख अभी तक पढ़ नहीं जा सके हैं । मौर्यकालीन अभिलेखों में निर्ग्रन्थों का उल्लेख तो है, किन्तु पार्श्व का उल्लेख नहीं । ज्ञातव्य है कि पार्श्व और महावीर दोनों की परम्पराओं के श्रमण निर्ग्रन्थ कहे जाते थे ।
परम्परागत मान्यताओं के आधार पर पार्श्व मौर्यकाल से भी लगभग ४०० वर्ष पूर्व हुए हैं, किन्तु पार्श्वनाथ के संबंध में प्राचीनतम अभिलेखीय साक्ष्य ईसा की प्रथम शती का है । मथुरा के अभिलेख क्रमांक ८३ में स्थानीय कुल के गणि उग्गहीनिय के शिष्य वाचक घोष के द्वारा अर्हत् पार्श्वनाथ की एक प्रतिमा को स्थापित करने का उल्लेख है । इससे यह फलित होता है कि ईसा की प्रथम शताब्दी में पार्श्वनाथ जैन परम्परा के अर्हत् के रूप में मान्य थे और उनकी प्रतिमा बनने
अभिलेखों में तीर्थंकर
पर अर्हत् शब्द का
लगी थी । स्मरण रखना होगा कि मथुरा के शब्द का प्रयोग नहीं है, अपितु उसके स्थान प्रयोग है, यथा अर्हत् वर्धमान, अर्हत् पार्श्व आदि । मथुरा में ईसा की प्रथम शताब्दी की उपलब्ध प्रतिमाओं में सर्वाधिक प्रतिमाए वर्धमान
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