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सुवर्णभूमि में कालकाचार्य पव्याविश्रो थिरो होजा। तेण निव्वेएणं आजीवगपासे निमित्तं पढियं । पच्छा पइहाणे ठिओं सायवाहणेण रन्ना तिन्नि पुच्छात्रो मामगा सयसहस्सेण-एगा पसुलिंडिया को वलेइ। बिइया समुद्र केत्तियं उदयं । प्रत्ययात्फलं पुच्छइ-महुरा किच्चिरेणं पडइ न वा। पढमाए कडगं लक्खमुल्लं । बिइ[य-तइयाए कुंडलाई । आयरिएण भणियं--"अलाहि मम एएण । ” किं पुण निमित्तस्स उवयारो एम। श्राजीवगा उबहिया-अम्ह एस गुरुदक्खिणाए । पच्छा तेण सुत्ते ण्डे गंडियासुयोगा कया। पाटलिपुत्ते संघमज्झे भणई-मए किंचि कयं तं निसामेह । तत्थ पयट्टियं । संगहणीओ वि ण कप्पट्टियाएं अप्पध णाणं उबग्गहकराणि भवंति । पढमाणुयोगमाई वि तेण कया ।
. उपर्युक्त चूर्णि का सारांश यह है कि, अपने मेधावी शिष्य प्रव्रज्या में स्थिर न रहने से, उनके सहाध्यायी ने जत्र आर्य कालक को यह मार्मिक बचन सुनाया कि आपने ऐसा मुहूर्त निकालना नहीं सीखा जिसमें प्रवाजित शिष्य प्रव्रज्या में स्थिर रहे तब कालकाचार्य आजीविकों के पास गये और उनसे निमित्तशास्त्र पढ़ा। पिछे प्रतिष्ठानपुर गये जहाँ सातवाहन राजा ने उनको तीन प्रश्न पूछे और हरेक प्रश्न का ठीक उत्तर होने पर एक एक लक्ष (सुवर्णमूल्य) देने को कहा। पहले प्रश्न का उत्तर मिलने से लक्षमूल्य अपना कटक दिया । दूसरे और तिसरे प्रश्न के उत्तर मिलने पर अपना एक एक कुंडल दिया। सातवाहन को पहले दो प्रश्न के उत्तर मिलने से जो प्रतीति हुई इससे उसने तीसरा प्रश्न यह किया कि मथुरा कब (कितने समय के बाद) पड़ेगी और पड़ेगी या नहीं ? यह तीसरे प्रश्नवाली हकीकत सविशेष महत्त्व की है जिसके बारे में आगे विचार होगा।
.. कटक और कुंडल को देख कर कालकाचार्य ने कहा कि उनको इन चीजों की जरूरत नहीं (उनको तो अग्राह्य थीं)। इतने में (कालकाचार्य को निमित्तज्ञान देनेवाले) श्राजीविक आ पहुँचे और अलङ्कारों को देखकर बोले-(हमें गुरुदक्षिणा अभी तक मिली नहीं) यही हमारी गुरुदक्षिणा (होगी)। पिछे कालकाचार्य ने गण्डिकानुयोग की रचना की और पाटलिपुत्र में सङ्घ के समक्ष निवेदन किया : मैंने कुछ रचनायें की हैं, आप इनको सुनिये। सुनकर सङ्घने इस रचना को मान्य किया। कालकाचार्य ने अल्पधारणाशक्तिवाले बालकों (बालकतुल्यों) के लिए संग्रहणीयाँ (संग्रहणी-गाथायें) बनाई वे उपकारक हुई ! उन्होंने प्रथमानुयोग भी बनाया। - पञ्चकल्पचूर्णि का कालकपरक वृत्तान्त कुछ विस्तारपूर्वक पञ्चकल्पभाष्य में पाया जाता है। वस्तुतः सङ्घदास गणिकृत पञ्चकल्पभाष्य पञ्चकल्पचूर्णि से प्राचीन है और ई० स० की ६ वीं सदी में बना हुआ है। पञ्चकल्पभाष्य की प्रस्तुत गाथायें निम्नलिखित हैं
मेहावीसीसम्मी, अोहातिए कालगज थेराणं । सज्झतिएण अह सो, ख्रिसंतेणं इमं भणियो॥ अतिबहुतं तेऽधीतं, ण य णातो तारिसो महुत्तो उ। जत्थ थिरो होइ सेहो, निक्खंतो अहो! हु बोद्धव्वं ।। तो एव स अोमत्थं, भणियो अह गंतु सो पतिहाणं ।
आजीविसगासम्मी, सिक्खति ताहे निमित्तं तु ॥ अह तम्मि अहीयम्मी, वडहे? निविठकऽन्नयकयाति । सालाहणो णरिंदो, पुच्छतिमा तिरिण पुच्छात्रो॥ पसुलिंडि पढमयाए, बितिय समुद्दे व केत्तियं उदयं । ततियाए पुच्छाए, महुरा य पडेज्ज व वत्ति ॥
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