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सुवर्णभूमि में कालकाचार्य
परिशिष्ट १
दत्तराजा और आर्यकालक दत्त राजा के सामने यज्ञफल का निरूपण करनेवाली घटना (घटना नं. १) का उल्लेख आवश्यकचूर्णि के अतिरिक्त 'अावश्यक नियुक्ति' में दो स्थानों में है।९२ मुनिश्री कल्याणविजयजी के खयाल के अनुसार इस घटना का सम्बन्ध सम्भवतः प्रथम कालकाचार्य से है। 3 'अावश्यक-नियुक्ति' की एक गाथा (८६५) में उल्लिखित सामायिक के अाठ दृष्टान्तों में तीसरा दृष्टान्त पार्यकालक का है जिन का वर्णन श्राव० चर्णि में इस प्रकार मिलता है। "तुरुविणी नगरी में 'जितशत्रु' नामक राजा था। वहाँ 'भद्रा' नाम की एक ब्राह्मणी रहती थी जिसके पुत्र का नाम 'दत्त' था। भद्रा का एक भाई था जिसने जैन मत की दीक्षा ली थी, उसका नाम था 'आर्य कालक'। दत्त जुआड़ी और मदिरा-प्रसङ्गी था। वह राजसेवा करते करते प्रधान सैनिक के पद तक पहुँच गया। पर अन्त में उसने विश्वासघात किया। राजकुल के मनुष्यों को फोड़कर उसने राजा को कैद किया और स्वयं राजा बन बैठा। उसने बहुत से यज्ञ किये। एक बार वह अपने 'मामा' कालक के पास जाकर बोला कि मैं धर्म सुनना चाहता हूँ; कहिए यज्ञों का फल क्या है ? कालक ने उसको धर्म का स्वरूप, अधर्म का फल और अशुभ कर्मों के उदय को समझाया और पूछने पर कहा कि यज्ञ का फल नरक है। दत्त ने इस का प्रमाण पूछा तो कालक ने बताया कि "आज से सातवें दिन तू कुंभी में पकता हुत्रा कुत्तों से नोचा जायगा।" दत्त ने कालक को कैद किया मगर ठीक वैसा ही हुआ जैसा भविष्य कथन आर्य कालक ने किया था।
ग्रन्थकार लिखते हैं-" इस प्रकार सत्य बचन बोलना चाहिए, जैसे कालकाचार्य बोले । ” इस कथानक का संक्षिप्त सार 'अावश्यक नियुक्ति' की निम्नलिखित गाथा में भी सूचित किया है
___ दत्तेण पुच्छियो जो, जण्णफलं कालगो तुरुमिणीए।
___ समयाए अाहिएणं संमं वुइयं भयं तेणं ।। ८७१॥ मुनिश्री कल्याणविजयजी लिखते हैं कि “जब तक चौथे कालक का अस्तित्व सिद्ध न हो, इस सातवीं घटना का सम्बन्ध पहले कालक से मान लेना कुछ भी अनुचित नहीं है।"
परिशिष्ट २
घटना नं. ५-गर्दभ-राजा का उच्छेद गई भिल्लोच्छेद वाली घटना ४ के साथ दो स्थलों का उल्लेख है-उज्जयिनी और पारसकूल । निशीथचर्णि में पारसकूल का उल्लेख है। वहाँ से साहिराजा और उनके साथ दूसरे ६५ साहियों को लेकर श्रार्य कालक “हिन्दुक-देश" को आते हैं। इस प्रकार ये ६५ या ६६ साहि (शक-कुलों) समुद्रमार्ग से सौराष्ट्र में आये।
६२. द्वि० अभि. ग्रं० पृ० ६७. १३. वही पृ० ११४-१५. ६४. निशीथचर्णिगत इस घटना के बयान के लिये देखो, द्विवेदी अभिनन्दन ग्रन्य, पृ०६८-६६.
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