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________________ सुवर्णभूमि में कालकाचार्य __ श्री. सङ्घदास गणि क्षमाश्रमणकृत बृहत्कल्पभाष्य' (विभाग १, पृ. ७३-७४) में निम्नलिखित गाथा है: सागरियमप्पाहण, सुवन्न सुयसिस्स खंतलक्खेण। कहणा सिस्सागमणं, धूली पुंजोवमाणं च ॥ २३६ ।। इस गाथा की टीका में श्रीमलयगिरि (वि० सं० १२०० अासपास) ने कालकाचार्य के सुवर्णभूमि में जाने की हकीकत विस्तार से बतलाई है जिसका सारांश यहाँ दिया जाता है। ___ उज्जयिनी नगरी में सूत्रार्थ के ज्ञाता आर्य कालक नाम के प्राचार्य बड़े परिवार के साथ विचरते थे। इन्हीं आर्य कालक का प्रशिष्य, सूत्रार्थ को जाननेवाला सागर (संज्ञक) श्रमण सुवर्णभूमि में विहार कर रहा था। आर्य कालक ने सोचा, मेरे ये शिष्य जब अनुयोग को सुनते नहीं तब मैं कैसे इनके बीच में स्थिर रह सकूँ ? इससे तो यह अच्छा होगा कि मैं वहाँ जाऊँ जहाँ अनुयोग का प्रचार कर सकूँ, और मेरे ये शिष्य भी पिछे से लज्जित हो कर सोच समझ पाएँगे। ऐसा खयाल कर के उन्होंने शय्यातर को कहा : मैं किसी तरह (अज्ञात रह कर) अन्यत्र जाऊँ। जब मेरे शिष्य लोग मेरे गमन को सुनेंगे तब तुम से पृच्छा करेंगे। मगर, तुम इनको कहना नहीं और जब ज्यादा तंग करें तब तिरस्कारपूर्वक बताना कि (तुम लोगों से निर्वेद पा कर) सुवर्णभूमि में सागर (श्रमण) की ओर गये हैं। ऐसा शय्यातर को समझाकर रात्रि को जब सब सोये हुए थे तब वे (विहार कर के) सुवर्णभूमि को गये। वहाँ जा कर उन्होंने स्वयं 'खंत' मतलब कि वृद्ध (साधु) हैं ऐसा बोल कर सागर के गच्छ में प्रवेश पाया। तब यह वृद्ध (अति वृद्ध-मतलब कि . अब जीर्ण और असमर्थ-नाकामीयाब होते जाते) हैं ऐसे खयाल से सागर प्राचार्य ने उनका अभ्युत्थान आदि से सन्मान नहीं किया। फिर अत्थ-पौरुषी (व्याख्यान) के समय पर (व्याख्यान के बाद) सागर ने उनसे कहा : हे वृद्ध ! आपको यह (प्रवचन) पसंद आया ? प्राचार्य (कालक) बोले : हाँ! सागर बोला : तब अवश्य व्याख्यान को सुनते रहो । ऐसा कह कर गर्वपूर्वक सागर सुनाते रहे। अब दूसरे शिष्यलोग (उज्जैन में) प्रभात होने पर प्राचार्य को न देखकर सम्भ्रान्त हो कर सर्वत्र ढूँढते हुए शय्यातर को पूछने लगे मगर उसने कुछ बताया नहीं और बोला : जब आप लोगों को स्वयं प्राचार्य कहते नहीं तब मेरे को कैसे कहते ? फिर जब शिष्यगण अातुर हो कर बहुत आग्रह करने लगा तब शर तिरस्कारपूर्वक बोला : श्राप लोगों से निर्वेद पा कर सुवर्णभूमि में सागर श्रमण के पास चले गये हैं। फिर वे सब सुवर्णभूमि में जाने के लिए निकल पड़े। रास्ते में लोग पूछते कि यह कौनसे प्राचार्य विहार कर रहे हैं ? तब वे बताते थे : आर्य कालक । अब इधर सुवर्णभूमि में लोगों ने बतलाया कि आर्य कालक नाम के बहुश्रुत प्राचार्य बहु परिवार सहित यहाँ आने के खयाल से रास्ते में हैं। इस बात को सुनकर सागर ने अपने शिष्यों को कहा : मेरे आर्य आ रहे हैं। मैं इनसे पदार्थों के विषय में पृच्छा क करूँगा। थोड़े ही समय के बाद वे शिष्य आ गये। वे पूछने लगे : क्या यहाँ पर प्राचार्य पधारे हैं ? उत्तर १. मुनि श्रीपुण्यविजयजी-संपादित, “ नियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्त्युपेतं-बृहत्कल्पसूत्रम्" विभाग १ से ३, प्रकाशक, श्री जैन आत्मानन्द सभा, भावनगर. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002101
Book TitleSuvarnabhumi me Kalakacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmakant P Shah
PublisherJain Sanskruti Sanshodhan Mandal Banaras
Publication Year1956
Total Pages54
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size4 MB
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