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सुवर्णभूमि में कालकाचार्य में बढ़ाये गये हैं। ७९ इस कालगणना के विषय में आज तक की सब चर्चाओं में से अभी कोई गणना निर्णयात्मक फलित नहीं हुई। ७९ सम्भव है कि शकों का भारत में प्रथम आगमन और उज्जैन में राज्य करना, तदनन्तर पराजय के बाद ई० स० ७८ में फिर राज्य करना ये दोनों अलग अलग हकीकत पश्चाद्भूत ग्रन्थकार ठीक जान या समझ न सके । खुद तिलोयपण्णत्ति महावीर निर्वाण और शक सम्वत् के बीच के अन्तर की दो परम्परा देती है, एक के अनुसार निर्वाण के बाद ४६१ वर्ष होने पर शक राजा उत्पन्न हुश्रा (तिलोयपण्णत्ति, अधिकार ४, गाथा १४६६, पृ० ३४०), दूसरी के अनुसार निर्वाण के ६०५ वर्ष और ५ मास के बाद शक नृप उत्पन्न हुअा (वही, गाथा १४९९, पृ० ३४१) । कैसे भी हो मगर इतना तो फलित होता है कि श्वेताम्बर परम्परा के बल मित्र-भानुमित्र दिगम्बर सम्प्रदाय में वसुमित्र-अग्निमित्र नाम से पिछा जाने लगे। वे शुगों के मध्य और पश्चिमी भारत में राज्यपाल (Governors) होंगे। वे पुष्यमित्र शुंगराजा के कुल के हो सकते हैं। विदिशा में पुष्यमित्र का युवराज अग्निमित्र राज्यपाल था वह महाकवि कालिदास कृत मालविकाग्निमित्र के पाठकों को सुविदित है। पाञ्चाल में से मित्र नामान्त (अन्य) राजाओं के सिक्के मिले हैं। इस तरह बलमित्र-भानुमित्र के उज्जयिनी या लाट के शासन की बात सम्भवित प्रतीत होती है।
पुष्यमित्र के समय में पतञ्जलि का महाभाष्य हुश्रा माना गया है। महाभाष्य के सूत्र ३।२।११ में कात्यायन के वार्तिक 'परोक्षे च लोकविज्ञान प्रयोक्तुदर्शनविषये' पर दो अति प्रसिद्ध उदाहरण दिए गये हैं.. "अरुणद् यवनः साकेतम्" और "अरुणद् यवनः माध्यमिकाम्"। विद्वानों ने एकमत से स्वीकार किया है कि यहाँ यूनानी राजा मीनान्डर के भारतीय अभियान का उल्लेख है। डा. वासुदेव शरण अग्रवाल लिखते हैं :--"मीनान्डर ने शाकल (स्यालकोट) को अपने अधिकार में करके एक अभियान सिन्ध राजपूताना की अोर माध्यमिका (चितौड़ के समीप "नगरी") को लक्ष्य करके किया था। उसका दूसरा सैनिक अभियान पूर्व की ओर था। उस में मथुरा-साकेत (अयोध्या) को अपने अधिकार में करके वह पाटलिपुत्र (पुष्पपुर) तक बढ़ गया था। गार्गी संहिता के युग-पुराण नामक अध्याय में इस पूर्वी अभियान का स्पष्ट विवरणात्मक उल्लेख है। इसका एक नया प्रमाण जैनेन्द्र-व्याकरण सूत्र २।२।६२ पर की अभयनन्दी की महावृत्ति में किसी प्रकार सुरक्षित बच गया है :--परोक्षे लोकविज्ञाने प्रयोक्तः शक्यदर्शनत्वेन दर्शनविषयत्वे लङ वक्तव्यः। अरुणन्महेन्द्रो मथुराम्। अरुणधवनःसाकेतम।xxx 'महेन्द्र' हमारी दृष्टि में अपपाठ है। शुद्ध पाठ "मेनन्द्र" होना चाहिए। अवश्य यही मूल पाठ रहा होगा, जिसका अर्थ न जानकर बाद के लेखकों ने 'महेन्द्र' कर दिया। वस्तुतः मीनान्डर का लोक में प्रसिद्ध नाम 'मेनन्द्र' था उनके अनेक सिक्के मिले हैं जिनमें एक अोर यवनानी लिपि में उनका नाम है और दूसरी ओर खरोष्ठी लिपि में 'मेनन्द्र' नाम लिखा रहता है।"८°
७६. मत्स्य, ब्रह्माण्ड और वायुपुराण में कुल ७ गई भिल्ल राजा लिखे हैं। और ब्रह्माण्डपुराण में गईभिल्ों का राजत्वकाल सिर्फ ७२ वर्ष का है। तित्योगाली पइन्नय में गईभिल्ल-वंश्य राजाओं की सजया तो नहीं पर उनका राजत्वकाल १०० वर्ष प्रमाण लिखा है। जिस गर्दभराजा को कालकसूरि ने शकों की सहाय से हठाया वह क्या इस वंश का था ? वह क्या गर्द भिल्ल राजाओं में आखरी राजा था ? ये सब विचारयोग्य बातें हैं। श्री शान्तिलाल शाह ने "धी ट्रॅडिशनल कॉनोलॉजि ऑफ ध जैनझ" में लिखा है कि जिस गर्दभराजा का कालक ने उच्छेदन किया वह मथुरा के एक लेख में Khardaa नामसे उद्दिष्ट राजा है और गई भिल्ल अलग वंश के, पल्हव पार्थिअन थे। यह सब अभी निश्चितरूप से माना नहीं जाता। किन्तु उस गर्दभ राजा का ग्रीक होना ज्यादा सम्भवित है ।
८०. डा. वासुदेव शरण अग्रवाल, “मिलिन्द के पूर्व-भारत में अभियान का नया उल्लेख," राजस्थान भारती, भाग ३, अङ्क ३--४ (जुलाइ, १९५३), पृ० ५१-७२.
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