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________________ सुवर्णभूमि में कालकाचार्य सम्मत होगा। सातवीं सदी में हरिभद्रसूरि ने अपनी समराइच्चकहा में भी व्यापारियों के परदेशगमन के दिये हुए बयान भी यह सूचित करते हैं कि जैन सोदागर भी जाते थे। और इनके भी कोई अवशेष, जैन-प्रतिमा इत्यादि मिलना असम्भव नहीं । किन्तु हमें याद रखना चाहिये कि अार्यकालक और सागरश्रमण जैसे साहसिक स्थविरों की परम्परा भी न रही जो सुवर्णभूमि को जायँ । और जब मगध और बंगाल में जैन सङ्घ को आपत्तियाँ आई तब जैनसाधु ज्यादा करके मध्य, पश्चिम और दक्षिण भारत को अपने केन्द्र बनाते रहे। सुवर्णभूमि का खुश्की रास्ता था पर मगध और बंगाल की प्रतिकूल परिस्थिति के कारण बर्मा जानेवाले जैन साधुओं की परम्परा टूट गई। कालकाचार्य का समय अब हमें यह सोचना चाहिये कि कालकाचार्य कब सुवर्णभूमि में गये। कालकाचार्य के बारे में विद्वानों ने खूब चर्चा की है। जैन सम्प्रदाय में अनेक कालकाचार्य-कथानक मिलते हैं। डा० डब्ल्यु. नॉर्मन ब्राउन ने अपने " स्टोरि ऑफ कालक" नामक ग्रन्थ में ऐसे कई कथानकों, और कहावलीअन्तर्गत कालक-कथानक और चूर्णिग्रन्थों में से भी कितनेक उल्लेख उद्धृत किये हैं। डा० ब्राउन ने इस विषय में पूर्व में हुई चर्चा की सूची भी दी है। मुनिश्री कल्याणविजयजी ने प्रभावक-चरित्र के गुजराती भाषान्तर की प्रस्तावना में कालकाचार्य के विषय में चर्चा की है। और फिर द्विवेदीअभिनन्दन ग्रन्थ में कितने कालकाचार्य हुए और कब इस विषय में मुनिश्री कल्याणविजयजी ने विस्तार से लिखा है। श्री साराभाई नवाब प्रकाशित कालकाचार्यकथा में इन सब कथानकों-चूर्णियों के (पञ्चकल्पभाष्य और पञ्चकल्पचूर्णि को छोड़ कर) पाठ दिये हैं किन्तु चूर्णियों के कुछ संदर्भ संक्षिप्त हैं। खास कर के यवराज, गर्दभ और अडोलिया वाला, जिसका कालक से ज्यादा सम्बन्ध न मान कर संक्षेप किया है। इस प्रकाशन को सम्पादित करने वाले पं० अम्बालाल शाहने मुनिश्री कल्याण विजय जी के प्रतिपादनों का सारांश दिया है। आशा है कि इन प्रकाशनों को सामने रख कर विद्वद्गण आगे की चर्चा को पढ़ेंगे। कालकाचार्य के विषय मे उपलब्ध सब निर्देशों (संदर्भो) को दो विभाग में बाँटना आवश्यक होगा। एक तो है नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि और कहावली का विभाग जो दूसरे विभाग से प्राचीन है और प्राचीनतर परम्पराओं का बना हुआ है। इसको ज्यादा विश्वसनीय मानना चाहिये। दूसरा है नवाब के प्रकाशन में दिया हुअा कालकाचार्य कथा प्राकृत विभाग, जिसमें नं. ३ वाले कहावली से लिये हुए संदर्भ को पहले विभाग में शामिल करना होगा और इस से अतिरिक्त सब कथानकों को दूसरे विभाग में। कहावली को दूसरे विभाग से प्राचीन गिननी चाहिये। भाषा की दृष्टि से वह चूर्णियों से ज्यादा मिलती है। और इसमें जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण के बारे में ग्रन्थकार ने "संपयं देवलोयं गो" ऐसा निर्देश किया है। अतः कहावलीकार और जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण के बीच में पाँच शताब्दि का अन्तर मान लेना उचित नहीं। ४ पहले विभाग से सम्बन्ध रखनेवाली हैं कल्पसूत्र-स्थविरावली, और नन्दीसूत्र की पट्टावली। दूसरी पट्टावलियों से ये दोनों ज्यादा प्राचीन हैं। दुःषमाकाल श्रीश्रमणसंघस्तोत्र और हेमचन्द्राचार्य की स्थविरावली ४४. विशेष चर्चा के लिए देखिये, जैन सत्यप्रकाश (अहमदाबाद), वर्ष १७ अंक ४ (जान्युअारी, १९५२), पृ००६-६१ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002101
Book TitleSuvarnabhumi me Kalakacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmakant P Shah
PublisherJain Sanskruti Sanshodhan Mandal Banaras
Publication Year1956
Total Pages54
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size4 MB
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