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सुवर्णभूमि में कालकाचार्य
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इस तरह हम देखते हैं कि महावीर स्वामी के पश्चात् करीब पाँचसौ वर्ष में दूसरे सम्प्रदायों के साथ जैन ने भी पूर्व में और उत्तरपूर्व में अपने सिद्धान्तों का प्रचार करने के प्रयत्न किये होंगे, और बंगाल में ई० स० की पाँचवी शताब्दी तक जैनों के वह प्रयत्न चालू थे । अतः इससे भी पूर्व में बर्मा, अनाम इत्यादि में तथा सुवर्णभूमि से पिछाने जाते प्रदेशों में ऐसा प्रयत्न होने का अगर प्राचीन जैन ग्रन्थों का प्रमाण मिले तत्र वह सङ्गत और अशक्य नहीं लग सकता । कम से कम बर्मा, श्रासाम और नेपाल में जैनाचायों के जाने का अनुमान तो हरेक को ग्राह्य होगा । दक्षिण बर्मा से पैदल रास्ते से जैनाचार्य, आगे भी, सुवर्णभूमि पिछाने जाते प्रदेशों में, जा सकते थे और गये होंगे ।
आर्य कालक के समय के बारे में आगे विचार होगा। उनका समय, जैसा कि आगे देखेंगे, ई० स० पूर्व १६२ से १५१ या ई० स० पूर्व १३२ से ६१ की आसपास का है : उस समय में भारतीय व्यापारी इन प्रदेशों में जाते थे यह हम देख चूके हैं। डॉ० मजुमदार लिखते हैं
"The view that the beginnings of Indian Colonisation in South-East Asia should be placed not later than the first century A. D. is also supported by the fact that trade relations between India and China, by way of sea, may be traced back to the second century B.C.36 As the Chineses vessels did not proceed beyond Northern Annam till after the first century A.D., it may be presumed that the Indian vessels plied at least as far as Annam even in the second century B.C. As the vessels in those days kept close to the coast, we may conclude that even in the second century B.C. Indian mariners and merchants must have been quite familiar with those regions in Indo-China, and Malaya Archipelago, where we find Indian colonies at a later date "36A
मगर जैनाचार्यों की जहाजी सफर का, समुद्रयान का अनुमान करना मुश्किल है। किन्तु वे खुश्की रास्ते से जा सकते थे। इस में भी बड़ी बड़ी नदियाँ तो आती ही हैं। बड़ी बड़ी नदियों के पार करने में जैन श्रमणनाव में बैठ सकते हैं। इस विषय की विस्तृत चर्चा बृहत्कल्पसूत्र, उद्देश ४ सूत्र ३२ से आगे, और इन सूत्रों की भाष्यगाथाओं (गाथा ५६२० ) में मिलती है । गङ्गा या शोण ( और सिन्धु, नर्मदा ) जैसी भारतीय बड़ी नदियाँ पार करनेवाले जैनाचार्यों ने ब्रह्मपुत्रा, ईरावदी जैसी नदियाँ भी नाँव में पार की होगी । इस में कोई प्रतिबंध नहीं है । किनारा सामने नजर में श्री सके ऐसे जलमार्ग में नाव का उपयोग हो सकता है। बड़ी बड़ी ऐसी नदियों के रास्ते में भी ऐसी कई जगह ( या पहाड़ी दून प्रदेश ) होती हैं जहाँ जल खूब गहरा होता है लेकिन सामनेवाला किनारा नजरों से दूर नहीं होता । और इन्हीं नदियों में ऐसे भी जलमार्ग होते हैं जहाँ पाँव ऊपर ऊठा कर चल कर भी उनको पार कर सकते हैं जैसी कि बृहत्कल्पसूत्रकार
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एगं पायं जले किच्चा एगं पायं थले किच्चा ” इत्यादि शब्दों में अनुज्ञा देते हैं । इस तरह अगर खुश्की रास्ते से बीच में आनेवाली नदियों को नाव में बैठकर या चलकर पार करके, दक्षिण बर्मा, चम्पा, मलाया इत्यादि प्रदेशों में जाना शक्य होता था तब अज कालग, सागर श्रमरण और दूसरे जैन श्रमणों का सुवर्णभूमि-गमन धर्मविरुद्ध, शास्त्रविरुद्ध नहीं था ।
३६. तोडंग पओ (Toung Pao), १३ (१६१२), पृ० ४५७ - ६१; इन्डियन हिस्टॉरिकल क्वार्टर्लि, १४,
पृ० ३८०.
३६ अ. डा० आर० सी० मजुमदार, श्रेन्शिअन्ट इन्डिया कॉलनायकेशन इन साउथ ईस्ट एशिया ( १९५५), पृ० १३.
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