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सुवर्णभूमि में कालकाचार्य भी लिया और चीनस्थान की ओर जहाज को चलाया...जलमार्ग होने से (चारों ओर) सारा जगत् जलमय सा प्रतीत होता था। फिर हमलोग चीनस्थान पहुँचे। वहाँ व्यापार कर के मैं सुवर्णद्वीप गया। पूर्व और दक्षिण दिशा के पत्तनों के प्रवास के बाद कमलपुर (ख्मेर), यवद्वीप (जवद्वीप-जावा) और सिंहल (सिलोन-लंका) में और पश्चिम में बर्बर (झांझीबार १) और यवन (अलेकझांड्रिा ) में व्यापार कर, मैंने आठ कोटि धन पैदा किया......जहाज में मैं सौराष्ट्र के किनारे जा रहा था तब किनारा मेरी दृष्टिमर्यादा में था उसी समय झंझावात हुआ और वह जहाज नष्ट हुअा। कुछ समय के बाद एक काष्ठफलक मेरे हाथ आ गया और (समुद्र के) तरंगों की परम्परा से फेंकाता हुअा मैं उस अवलम्बन से जी बचाकर सात रात्रियों के बाद आखिर उम्बरावती-वेला (वेला = खाड़ी) के किनारे पर डाला गया। इस तरह मैं समुद्र से बाहर आया।"२८
यह ब्यान महत्त्व का है। प्रियंगुपट्टण बंगाल की एक प्राचीन बन्दरगाह थी। वहाँ से चारुदत्त चीन और हिन्द-एशिया की सफर करता है। चीन से सुवर्णद्वीप जाता है और पूर्व और दक्षिण के बन्दरगाहों, व्यापारकेन्द्रों में सोदा कर ख्मेर, वहाँ से यवद्वीप और फिर वहाँ से सिंहल को जाता है। इस तरह चीन और ख्मेर के बीच में सुवर्णद्वीप होना सम्भवित है।
- वसुदेवहिण्डि की रचना बृहत्कल्पभाष्य से प्राचीन है।२९ वसुदेवहिण्डि अन्तर्गत चारुदत्त के बयान से प्रतीत होता है कि जैन ग्रन्थकार इन पूर्वीय देशों से सुपरिचित थे। बृहत्कल्पभाष्य-गाथा में "सुवरण" शब्द-प्रयोग से ग्रन्थकार की अपनी सूत्रात्मक शैली का काम चल जाता है क्योंकि लिखने और पढ़नेवाले इसके मतलब से (सुवरण शब्द से सूचित सुवर्णभूमि अर्थ से) सुपरिचित थे। और उत्तराध्ययन नियुक्ति तो स्पष्ट रूप से सुवर्णभूमि का निर्देश करती है।
सुवर्णभूमि के अगरु के बारे में कौटिल्य के निर्देश (अर्थशास्त्र, २, ११) का उल्लेख पहिले किया गया है। मिलिन्दपण्ह भी, समुद्रपार तक्कोल, चीन, सुवर्णभूमि के बन्दरगाहें, जहाँ जहाज इकडे होते हैं, का उल्लेख करता है। .
निद्देस में सुवर्णभूमि और दूसरे देशों की जहाजी मुसाफरी का निर्देश है। महाकर्म-विभङ्ग में देशान्तरविपाक के उदाहरण में महाकोसली और ताम्रलिपि से सुवर्णभूमि की ओर जहाजी रास्ते से जानेवाले व्यापारियों को होती हुई आपत्तियों की बातें हैं। सिलोनी महावंश में थेर उत्तर और थेर सोण के सुवर्णभूमि में धर्मप्रचार का निर्देश है।'
२७. यवन असल में आयोनिश्रा के लिए प्रयुक्त था। जिस समय वसुदेवहिण्डि और गुणाढ्य की बृहत्कथा रची गई उस समय यवन से अलेक्झाण्डिया उद्दिष्ट होगा।
२८. वसुदेवहिण्डि , भाग १, पृ० १३२-१४६. २६. आगम प्रभाकर मुनिश्री पुण्यविजयजी की प्रस्तावना, बृहत्कल्पसूत्र, विभाग ६. ३०. मिलिन्दपण्ह (भाषान्तर ), सेक्रेड बुक्स ऑफ ध इस्ट सिरीझ, वॉल्युम ३६, पृ. २६६
--"As a ship-owner, who has become wealthy by constantly levying freight in some sea-port town, will be able to traverse the high-seas and go to.....
Takkola or Cina....or Suvarnabhumi or any other place where ships may : congregate........."
देखो, डा. सिल्वा लेवि, Etudes Asiatiques, वॉ० २, पृ० १-५५, ४३१. - ३१. महाकर्म-विभङ्ग, डा. सिल्वा लेवि प्रकाशित, पृ० ५० से आगे देखो, महावंश, गाइगर प्रकाशित १०८६ सुवर्णद्वीप ( डा. रमेशचन्द्र मजुमदार कृत ) विभाग १, पृ० ६-४०.
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